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________________ ११० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद पूर्वक राजकुल बालिका नरेन्द्र श्रमणी का कहा कि - हे दुष्करकारिके ऐसी माया के वचन बोलकर काफी घोर, वीर, उग्र, कष्टदायक, दुष्कर तप, संयम, स्वाध्याय ध्यान आदि करके जो संसार न बढ़े ऐसा बड़ा पुण्यप्रकर्ष इकट्ठा किया है । उसको निष्फल मत करना । अनन्त संसार देनेवाले ऐसे माया-दंभ करने का कोई प्रयोजन नहीं है । बेजिजक आलोचना करके तुम्हारी आत्मा को शल्यरहित बना या जैसे अंधेरे में नदी का नृत्य निरर्थक होता है, धमेल सुवर्ण एक जोरवाली फूंक में उसकी मेहनत निरर्थक जाती है, उस अनुसार आज तक राजगादी स्वजनादिक का त्याग करके केश का लोच किया । भिक्षा, भ्रमण, भुमि पर शय्या करना, वाईस परिषह सहना, उपसर्ग सहना आदि जो क्लेश सहे वो सब किए गए चारित्र अनुष्ठान तुम्हारे निरर्थक होंगे? तब निर्भागी ने उत्तर दिया कि - हे भगवंत ! क्या आप ऐसा मानते हो कि आपके साथ छल से बात कर रहा हूँ । और फिर खास करके आलोचना देते समय आपके साथ छल कर ही नहीं शकते । यह मेरी कहानी बेजिजक सच मानो । किसी तरह उस समय मैंने सहज भी स्नेहराग की अभिलाषा से या राग करने की अभिलाषा से आपकी ओर नजर नहीं की थी, लेकिन आपका इम्तिहान लेने के लिए, तुम कितने पानी में हो - शील में कितने दृढ़ हो, उसका इम्तिहान करने के लिए नजर की थी । ऐसे बोलती कर्मपरिणति को आधीन होनेवाली बद्ध-स्पृष्ट निकाचित ऐसे उत्कृष्ट हालातवाला स्त्री नाम कर्म उपार्जन करके नष्ट हुइ, हे गौतम ! छल करने के स्वभाव से वो राजकुल बालिका नरेन्द्र श्रमणीने लम्बे अरसे का निकाचित स्त्रीवेद उपार्जन किया ।। उसके बाद शिष्यगण परिवार सहित महा ताज्जुब समान स्वयंबुद्धकुमार महर्षिने विधिवत् आत्मा की - संलेखना करके एक मास का पादपोपगमन अनसन करके सम्मेत पर्वत के शिखर पर केवलीपन से शिष्यगण के साथ निर्वाण पाकर मोक्ष पधारे । [१५१२] हे गौतम ! वो राजकुलबालिका नरेन्द्र श्रमणी उस माया शल्य के भावदोष से विद्युत्कुमार देवलोक में सेवक देव में स्त्री नेवले के रूप में उत्पन्न हुइ । वहाँ से च्यवकर फिर उत्पन्न होती और मर जाती मानव और तिर्यंच गति में समग्र दौर्भाग्य दुःख दारिद्र, पानेवाली समग्र लोक से पराभव-अपमान, नफरत पाते हुए अपने कर्म के फल को महसूस करते हुए हे गौतम ! यावत् किसी तरह से कर्म का क्षयोपशम श्रमणपन से यथार्थ परिपालन करके सर्व स्थान में सारे प्रमाद के आलम्बन से मुक्त होकर संयम क्रिया में उद्यम करके उस भव में माया से किए काफी कर्म जलाकर भस्म करके अब केवल अंकुर समान भव बाकी रखा है, तो भी हे गौतम ! ज्यों-त्यों समय में रागवाली दृष्टि की आलोचना नहीं की उस कर्म के दोष से ब्राह्मण की स्त्री केरूप में उत्पन्न हुइ । वो राजकुलबालिका नरेन्द्र श्रमणी (समान साध्वी) के जीव का निर्वाण हआ ।। [१५१३] हे भगवंत ! जो किसी श्रमणपन का उद्यम करे वो एक आदि साँत आँठ भव में यकीनन सिद्धि पाए तो फिर इस श्रमणी को क्यों कम या अधिक नहीं ऐसे लाख भव तक संसार में भ्रमण करना पड़ा । हे गौतम ! जो किसी निरतिचार श्रमणपन निर्वाह करे वो यकीनन एक से लेकर आँठ भव तक सिद्धि पाता है । जो किसी सूक्ष्म या बादर जो किसी माया शल्यवाले हो, अपकाय का भोगवटा करे, तेऊकाय का अतिचार लगाए वो लाख भव करके भटककर फिर सिद्धि पाने का फायदा पाने की उचितता प्राप्त करेगा | क्योंकि श्रमणपन
SR No.009789
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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