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________________ निशीथ - ८/५७५ [५७५-५७९] जो साधु-साध्वी राजा, क्षत्रिय ( ग्रामपति) या शुद्ध वंशवालों के राज्य आदि अभिषेक, गोष्ठी, पिंडदान, इन्द्र, स्कन्द, रूद्र, मुकुन्द, भूत, जक्ष, नाग, स्तूप, चैत्य, रूक्ष, गिरि, दरी, अगड ( हवाड़ा) तालाब, द्रह, नदी, सरोवर, सागर, खाण (आदि) महोत्सव या ऐसे अन्य तरह के अलग-अलग महामहोत्सव (संक्षेप में कहा जाए तो राजा आदि के कई तरह के महोत्सव ) में जाकर अशन आदि चार प्रकार के आहार में से कुछ भी ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्, उसी तरह राजा आदि की भ्रमण शाला या भ्रमण गृह में घूमने जाए, अश्व, हस्ति, मंत्रणा, गुप्तकार्य, राझ या मैथुन की शाला में जाए और अन आदि आहार ग्रहण करे, राजा आदि के यहां रखे गए दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मोरस, शक्कर, मिश्री या ऐसे दुसरे किसी भी भोजन को ग्रहण करे, कौए आदि को फेंकने के खाने के बाद दुसरों को देने के अनाथ को देने के - याचक को देने के गरीबों को देने को भोजन को ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् । - - ८७ इस तरह उद्देशक- ८ में कहे हुए किसी भी दोष का खुद सेवन करे, अन्य से सेवन करवाए - वे दोष सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो चातुर्मासिक परिहारस्थान अनुद्घातिक प्रायश्चित् आता है - जिसे “गुरु चौमासी" प्रायश्चित् भी कहते है । उद्देश - ९ " निसीह" सूत्र के इस उद्देशक में ५८० से ६०७ यानि कि २८ सूत्र है । उसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को 'चाउम्मासियं परिहारद्वाणं अनुग्घातियं' कि जो "गुरू चौमासी" के नाम से भी पहचाना जाता है वो प्रायश्चित् आता है । [५८०-५८४] जो साधु-साध्वी राजपिंड़ (राजा के वहाँ से अशन आदि ) ग्रहण करे, खाए, राजा के अंतःपुर में जाए, अंतःपुर रक्षिका को ऐसा कहे कि ' हे आयुष्मति ! राजा अंतःपुर रक्षिका ! ' हमें राजा के अंतःपुर में गमन - आगमन करना कल्पता नहीं । तूं यह पात्र लेकर राजा के अंतःपुर में से अशन-पान - खादिम - स्वादिम नीकालकर ला और मुझे दे (इस तरह से अंतःपुर में से आहार मंगवाए ), कोइ साधु-साध्वी शायद ऐसा न कहे, लेकिन अन्तःपुररक्षिका ऐसे बोले कि, "हे आयुष्मान् श्रमण ! तुम्हें राजा के अंतःपुर में आवागमन कल्पता नहीं, तो तुम्हारा आहार ग्रहण करने का यह पात्र मुजे दो, मैं अंतःपुर में से अशन - आदि आहार तुम्हारे पास लाकर तुम्हें दू । “यदि वो साधु-साध्वी उसका यह वचन स्वीकार करे, ऐसे कथन अनुसार किसी दोष का सेवन करे, करवाए या सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । [५८५] जो साधु-साध्वी, राजा, क्षत्रिय, शुद्धवंशीय क्रम से राज्य अभिषेक पानेवाला राजा आदि के द्वारपाल, पशु, नौकर, बली, क्रितक, अश्व, हाथी, मुसाफरी, दुर्भिक्ष, अकाल, भिक्षु, ग्लान, अतिवृष्टि पीड़ित, महमान इन सबके लिए तैयार किए गए या रखे गए भोजन को ग्रहण करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । [५८६] जो साधु-साध्वी राजा, क्षत्रिय, शुद्रवंशीय यह छह दोषो को जाने बिना, पुछे बिना, चार या पांच रात्रि गृहपति कुल में भिक्षार्थ हेतु प्रवेश या निष्क्रमण करे, वे स्थान हैकोष्ठागार, भाण्डागार, पाकशाला, खीरशाला, गंजशाला और रसोई गृह । तो प्रायश्चित् ।
SR No.009788
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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