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निशीथ-५/३७७
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( साधु के लिए समय मुताबिक परिवर्तन करके बनाई हुई), सपरिकर्म (लिंपण, गुंपण, रंगन आदि परिकर्म करके बनाई हुई) शय्या अर्थात् वसति या स्थानक में प्रवेश करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[३७८] जो साधु-साध्वी 'संभोग प्रत्ययिक क्रिया नहीं है' यानि एक मांडली में साथ बैठकर आहार आदि क्रिया साथ में होती हो वो सांभोगिक क्रिया कहलाती है, “जो सांभोगिक हो उसके साथ मांडली आदि व्यवहार न करना और असांभोगिक के साथ व्यवहार करना उसमें कोई दोष नहीं" ऐसा बोले, बुलवाए या बोलनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[३७९-३८१] जो साधु-साध्वी अखंड़-दृढ़, लम्बे अरसे तक चले ऐसे टिकाऊ और इस्तेमाल में आ शके ऐसे तुंबड़े, लड़के के या मिट्टी के पात्रा को तोड़कर या टुकड़े कर दे, परवे, वस्त्र, कंबल या पाद प्रोंछनक (रजोहरण) के टुकड़े करके परठवे, दांड़ा, दांड़ी वांस की शलाखा आदि तोड़कर टुकड़े करके परठवे, परठवाए या उसकी अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् । [३८२-३९२] जो साधु-साध्वी रजोहरण ३२ अंगुल मात्रा से ज्यादा धारण करे, उसकी दशी छोटी बनाए, बल्ले की तरह गोल बाँधे, अविधि से बाँधे, ओधारिया, निशेथीया रूप दो वस्त्र को एक ही डोर से बाँधे, तीन से ज्यादा बंध को बाँधे, अनिसृष्ट अर्थात् अनेक मालिक का रजोहरण होने के बाद भी उसमें से किसी एक मालिक देवें तो भी उसे धारण करे, अपने से (साढ़े तीन हाथ से भी) दूर रखे, रजोहरण पर बैठे, उस पर सिर रखके सोए, उसपे सो कर बगल बदले । इसमें से कोई भी दोष करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
इस प्रकार इस उद्देशक-५ - में बताए हुए दोष में से किसी दोष का खुद सेवन करे, दुसरों के पास करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे मासिक परिहार स्थान उद्घातिक नामका प्रायश्चित् आता है जिसे “लघुमासिक प्रायश्चित्" भी कहते है । उद्देशक - ५ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
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उद्देश-६
“निसीह” सूत्र के इस उद्देशक में ३९३ से ४६९ यानि कि कुल ७७ सूत्र है । जिसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को 'चाऊम्मासियं परिहारठ्ठाणं अनुग्घातियं नाम का प्रायश्चित् आता है । जिसे “गुरु चौमासी" प्रायश्चित् कहते है ।
[३९३-४०२] जो साधु मैथुन सेवन की इच्छा से स्त्री को (साध्वी हो तो पुरुष को ) विनती करे, हस्त कर्म करे मतलब हाथ से होनेवाली क्रियाए करे, जननेन्द्रिय का संचालन करे यावत् शुक्र (साध्वी हो तो रज) बाहर नीकाले । ( उद्देशक - १ में सूत्र २ से १० तक वर्णन की हुई सभी क्रियाए यहाँ समज लेना) यह काम खुद करे, दुसरों से करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[ ४०३ - ४०५] जो साधु-मैथुन सेवन की इच्छा से स्त्री को (साध्वी - पुरुष को) वस्त्र रहित करे, वस्त्र रहित होने के लिए कहे - स्त्री ( पुरुष ) के साथ क्लेश झगड़े करे, क्रोधावेश से बोले, लेख यानि खत लिखे । यह काम करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
[ ४०६-४१०] जो साधु मैथुन सेवन की इच्छा से स्त्री को (साध्वी- पुरुष को )