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चन्द्रवेध्यक- १२५
के अभ्यास रहित कायर पुरुष अंतिम आराधना के वक्त घबरा जाता है ।
[१२६] पहले से ही अच्छी तरह से कठिन तप - संयम की साधना करके सत्त्वशील बने मुनि को मरण के वक्त धृतिबल से निवारण की गई परिसह की सेना कुछ भी करने के लिए समर्थ नहीं हो शकती ।
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[१२७] पहले से ही कठिन तप, संयम की साधना करनेवाले बुद्धिमान मुनि अपने भावि हित को अच्छी तरह से सोचकर निदान - पौद्गलिक सुख की आशंसा रहित होकर, किसी भी द्रव्य-क्षेत्रादि विषयक प्रतिबंध न रखनेवाला ऐसा वो स्वकार्य समाधि योग की अच्छी तरह से साधना करता है ।
[१२८] धनुष ग्रहण करके, उसके ऊपर खींचकर तीर चड़ाकर लक्ष्य के प्रति - स्थिर मतिवाला पुरुष अपनी शिक्षा के बारे में सोचता हुआ - राधा वेध को बांध लेता है ।
[१२९] लेकिन वो धनुर्धर अपने चित्त को लक्ष्य से अन्यत्र ले जाने की गलती कर बैठे तो प्रतिज्ञाबद्ध होने के बावजूद राधा के चन्द्रक रूप वेध्य को वींध नहीं शकता ।
[ १३०] चन्द्रवेध्य की तरह मरण के वक्त समाधि प्राप्त करने के लिए अपने आत्मा को मोक्ष मार्ग में अविराधिगुणवाला अर्थात् आराधक बनाना चाहिए ।
[ १३१] सम्यग्दर्शन की दृढ़ता से निर्मल बुद्धिवाला और स्वकृत पाप की आलोचना निंदा-गर्दा करनेवाले अन्तिम वक्त पर मुनि का मरण शुद्ध होता है ।
[१३२] ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में मुझसे जो अपराध हुए है, श्री जिनेश्वर भगवंत साक्षात् जानते है, उन सर्व अपराध की सर्व भाव से आलोचना करने के लिए मैं उपस्थित हुआ हूँ ।
[१३३] संसार का बँध करनेवाले, जीव सम्बन्धी राग और द्वेष रूप दो पाप को जो पुरुष रोक ले दूर करे वो मरण के वक्त यकीनन अप्रमत्त-समाधियुक्त बनता है ।
[१३४] जो पुरुष जीव के साथ तीन दंड का ज्ञानांकुश द्वारा गुप्ति रखने के द्वारा निग्रह करते है, वो मरण के वक्त कृतयोगी - यानि अप्रमत्त रहकर समाधि रख शकता है
[१३५] जिनेश्वर भगवंत से गर्हित, स्व शरीर में पेदा होनेवाले, भयानक क्रोध आदि कषाय को जो पुरुष हंमेशा निग्रह करता है, वो मरण में समतायोग को सिद्ध करता है । [१३६] जो ज्ञानी पुरुष विषय में अति लिप्त इन्द्रिय के ज्ञान रूप अंकुश द्वारा निग्रह करता है, वो मरण के वक्त समाधि साधनेवाला बनता है ।
[१३७] छ जीव निकाय का हितस्वी, इहलोकादि साँत भय रहित, अति मृदु-नम्र स्वभाववाला मुनि नित्य सहज समता का अहेसास करते हुए मरण के वक्त परम समाधि को सिद्ध करनेवाला बनता है ।
[१३८] जिन्होंने ने आठ मद जीत लिए है, जो ब्रह्मचर्य की नव-गुप्ति से गुप्त - सुरक्षित है, क्षमा आदि दस यति धर्म के पालन में उद्यत है, वो मरण के वक्त भी यकीनन समतासमाधिभाव पाता है ।
[१३९] जो अति दुर्लभ ऐसे मोक्षमार्ग की आराधना की इच्छा रखता हो, देव, गुरु आदि की आशातना का वर्जन करता हो या धर्मध्यान के सतत अभ्यास द्वारा शुकल-ध्यान के सन्मुख हुआ हो, वो मरण में यकीनन समाधि प्राप्त करता है ।