________________
४३
चन्द्रवेध्यक- ९४
[९४] वीतराग परमात्मा के मार्ग में जो एक पद द्वारा मानव ने तीव्र वैराग्य पाया हो, उस पद को मरण तक भी न छोडना चाहिए ।
[९५] जिन शासन के जो किसी एक पद के धारण से जिसे संवेग प्राप्त होता है, वही एक पद के आलम्बन से क्रमिक अध्यात्म-योग की आराधना द्वारा विशिष्ट धर्मध्यान और शुकलध्यान द्वारा समग्र मोहजाल को भेदते है ।
[९६-९७] मरण के वक्त समग्र द्वादशांगी का चिन्तन होना वो अति समर्थ चित्तवाले मुनि से भी मुमकीन नहीं है । इसलिए उस देश-काल में एक भी पद का चिन्तन आराधना उपयुक्त होकर जो करता है उसे जिनेश्वर ने आराधक कहा है ।
[१८] सुविहित मुनि आराधना में एकाग्र होकर समाधिपूर्वक काल करके उत्कृष्ट से तीन भव में यकीनन मोक्ष पाता है । अर्थात् निर्वाण - शाश्वत पद पाता है ।
[१९] इस तरह श्रुतज्ञान के विशिष्ट गुण के महान लाभ संक्षेप में मैंने वर्णन किया है । अब चारित्र के विशिष्ट गुण एकाग्र चित्तवाले बनकर सुनो ।
[१००] जिनेश्वर भगवान् के बताए धर्म का कोशीश से पालन करने के लिए जो सर्व तरह से गृहपाश के बँन्धन से सर्वथा मुक्त होते है, वो धन्य है ।
[१०१] विशुद्ध भाव द्वारा एकाग्र चित्तवाले बनकर जो पुरुष जिनवचन का पालन करता है, वो गुण-समृद्ध मुनि मरण समय प्राप्त होने के बावजुद सहज भी विषाद - ग्लानि महसूस नहीं करते ।
[१०२] केवल दुःख से मुक्त करनेवाले ऐसे मोक्षमार्ग में जिन्होंने अपने आत्मा को स्थिर नहीं किया, वो दुर्लभ ऐसे श्रमणत्व को पाकर सीदाते है ।
[ १०३ ] जो दृढ़ प्रज्ञावाले भाव से एकाग्र चित्तवाले बनकर पारलौकिक हित की गवेषणा करते है । वो मानव सर्व दुःख का पार पाते है ।
[१०४] संयम में अप्रमत्त होकर जो पुरुष क्रोध, मान, माया, लोभ, अरति और दुगंछा का क्षय कर देता है । वो यकीनन परम सुख पाता है ।
[१०५] अति दुर्लभ मानव जन्म पाकर जो मानव उसकी विराधना करता है, जन्म को सार्थक नहीं करता, वो जहाज तूट जाने से दुःखी होनेवाले जहाजचालक की तरह पीछे से बहुत दुःखी होता है ।
[१०६] दुर्लभतर श्रमणधर्म पाकर जो पुरुष मन, वचन, काया के योग से उसकी विराधना नहीं करते, वो सागर में जहाज पानेवाले नाविक की तरह पीछे शोक नहीं पाता । [१०७] सबसे पहले तो मानव जन्म पाना दुर्लभ मानव जन्म में बोधि प्राप्ति दुर्लभ है । बोधि मिले तो भी श्रमणत्व अति दुर्लभ है ।
I
[१०८] साधुपन मिलने के बावजूद भी शास्त्र का रहस्यज्ञान पाना अति दुर्लभ है । ज्ञान का रहस्य समजने के बाद चारित्र की शुद्धि होना अति दुर्लभ है । इसलिए ही ज्ञानी पुरुष आलोचनादि के द्वारा चारित्र विशुद्धि के लिए परम उद्यमशील रहते है ।
[१०९] कितनेक सम्यक्त्वगुण की नियमा प्रशंसा करते है, कितनेक चारित्र की शुद्धि की प्रशंसा करते है तो कुछ सम्यग् ज्ञान की प्रशंसा करते है ।
[११०-१११] सम्यक्त्व और चारित्र दोनो गुण एक साथ प्राप्त होते हो तो बुद्धिशाली