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चन्द्रवेध्यक- २८
और दुसरे धर्म आचार के ज्ञाता - उपदेष्टा हजारों आचार्य प्राप्त किए है ।
[२९-३०] सर्वज्ञ कथित निग्रन्थ प्रवचन में जो आचार्य है, वो संसार और मोक्ष- दोनों के यथार्थ रूप को बतानेवाले होने से जिस तरह एक प्रदीप्त दीप से सेंकड़ों दीपक प्रकाशित होते है, फिर भी वो दीप प्रदीप्त प्रकाशमान ही रहता है, वैसे दीपक जैसे आचार्य भगवन्त स्व और पर, अपने और दुसरे आत्माओं के प्रकाशक - उद्धारक होते है ।
[३१-३२] सूरज जैसे प्रतापी, चन्द्र जैसे सौम्य - शीतल और क्रान्तिमय एवं संसारसागर से पार उतारनेवाले आचार्य भगवन्त के चरणों में जो पुण्यशाली नित्य प्रणाम करते है, वो धन्य है । ऐसे आचार्य भगवन्त की भक्ति के राग द्वारा इस लोक में कीर्ति, परलोक में उत्तम देवगति और धर्म में अनुत्तर - अनन्य बोधि-श्रद्धा प्राप्त होती है ।
[३३] देवलोक में रहे देव भी दिव्य अवधिज्ञान द्वारा आचार्य भगवन्त को देखकर हमेशा उनके गुण का स्मरण करते हुए अपने आसन-शयन आदि रख देते है |
[३४] देवलोक में रूपमती अप्सरा के बीच में रहे देव भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का स्मरण करते हुए उस अप्सरा द्वारा आचार्य भगवन्त को वन्दन करवाते है ।
[३५] जो साधु छठ्ठ, अठ्ठम, चार उपवास आदि दुष्कर तप करने के बावजूद भी गुरु वचन का पालन नहीं करते, वो अनन्त संसारी बनते है ।
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[३६] यहाँ गिनवाए वे और दुसरें भी कईं आचार्य भगवन्त के गुण होने से उसकी गिनती का प्रमाण नहीं हो शकता । अब मैं शिष्य के विशिष्ट गुण के संक्षेप में कहूँगा । [३७] जो हमेशा नम्रवृत्तिवाला, विनीत, मदरहित, गुण को जाननेवाला, सुजन - सज्जन और आचार्य भगवन्त के अभिप्राय आशय को समजनेवाला होता है, उस शिष्य की प्रशंसा पंड़ित पुरुष भी करते है । ( अर्थात् वैसा साधु सुशिष्य कहलाता है 1 )
[३८] शीत, ताप, वायु, भुख, प्यास और अरति परीपह सहन करनेवाले, पृथ्वी की तरह सर्व तरह की प्रतिकूलता - अनुकूलता आदि को सह लेनेवाली - धीर शिष्य की कुशल पुरुष तारीफ करते है ।
[३९] लाभ या गेरलाभ के अवसर में भी जिसके मुख का भाव नहीं बदलता अर्थात् हर्ष या खेद युक्त नहीं बनता और फिर जो अल्प ईच्छावाला और सदा संतुष्ट होते है, ऐसे शिष्य की पंड़ित पुरुष तारीफ करते है ।
[४०] छ तरह की विनयविधि को जाननेवाला और आत्मिकहित की रूचिवाला है, ऐसा विनीत और ऋद्धि आदि गारव रहित शिष्य की गीतार्थ भी प्रशंसते है ।
[४१] आचार्य आदि दश प्रकार की वैय्यावच्च करने में सदा उद्यत, वाचना आदि स्वाध्याय में नित्य प्रयत्नशील तथा सामायिक आदि सर्व आवश्यक में उद्यत शिष्य की ज्ञानीपुरुष प्रशंसा करते है ।
[४२] आचार्यो के गुणानुवाद कर्ता, गच्छ्वासी गुरु एवं शासन की कीर्ति को बढ़ानेवाले और निर्मल प्रज्ञा द्वारा अपने ध्येय प्रति अति जागरूक शिष्य की महर्षिजन प्रशंसा करते है । [४३] हे मुमुक्षु मुनि ! सर्व प्रथम सर्व तरह के मान का वध करके शिक्ष प्राप्त कर । सुविनीत शिष्य के ही दुसरे आत्मा शिष्य बनते है, अशिष्य के कोई शिष्य नहीं बनता ।