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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
आलोचना नहीं करनेवाले और राजकथा आदि विकथा में हंमेशा तत्पर हो वो आचार्य अधम जानने चाहिए ।
[१२] छत्तीस गुणयुक्त और अति व्यवहार कुशल ऐसे आचार्य को भी दुसरों की साक्षी में आलोचना रूप विशुद्धि करनी चाहिए ।
[१३] जैसे अति कुशल वैद्य अपनी व्याधि दुसरे वैद्य को बताते है, और उस वैद्य का कहा मानकर व्याधि के प्रतिकार समान कर्म का आचरण करते है, वैसे आलोचक सूरि भी अन्य के पास अपना पाप प्रकट करें और उन्होंने दिया हुआ तप विधिवत् अंगीकार करते है ।
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[१४] देश, क्षेत्र, द्रव्य, काल और भाव जानकर वस्त्र, पात्र, उपाश्रय और साधुसाध्वी के समूह का संग्रह करे और सूत्रार्थ का चिन्तवन करे, उनको अच्छे आचार्य मानना चाहिए |
[१५] जो आचार्य आगमोक्त विधि से शिष्य का संग्रह और उनके लिए श्रुतदान आदि उपग्रह न करे न करवाएँ, साधु और साध्वी को दिक्षा देकर समाचारी न शीखाए । [१६] और जो बालशिष्य को गाय जैसे बछड़े को चूमती है वैसे चूमे और सन्मार्ग ग्रहण न करवाएँ, उसे शिष्य का शत्रु मानना चाहिए ।
[१७] जो आचार्य शिष्य को स्नेह से चूमे, लेकिन सारणा, वारणा, प्रेरणा और बारबार प्रेरणा न करे वो आचार्य श्रेष्ठ नहीं है; लेकिन जो सारणा वारणादि करते है वो दंड आदि द्वारा मारने के बावजूद भी श्रेष्ठ है ।
[१८] और फिर जो शिष्य प्रमाद समान मदीरा से ग्रस्त और सामाचारी विराधक गुरु को हितोपदेश के द्वारा धर्ममार्ग में स्थिर न करे वो शिष्य भी शत्रु ही है
[१९] प्रमादी गुरु को किस तरह बोध करते है वो दिखाते है । हे मुनिवर ! हे गुरुदेव ! तुम्हारे जैसे पुरुष भी यदि प्रमाद के आधीन हो तो फिर इस संसार सागर में हम जैसे को नौकासमान दुसरे कौन आलम्बन होंगे ?
[२०] प्रवचन प्रधान, ज्ञानाचार, दर्शनाचार को चारित्राचार उन तीनों में और फिर पंचविध आचार में, खुद को और गच्छ को स्थिर करने के लिए जो प्रेरणा करे वो आचार्य । [२१] चार तरह का पिंड, उपधि और शय्या इन तीनों को, उद्गम, उत्पादन और पणा द्वारा शुद्ध, चारित्र की रक्षा के लिए, ग्रहण करे वो सच्चा संयमी है । [२२] दुसरों ने कहा हुआ गुह्य प्रकट न करनेवाले और सर्व तरह से सर्व कार्य में अविपरीत देखनेवाले हो वो, चक्षु की तरह, बच्चे और बुढ्ढे से संकीर्ण गच्छ की रक्षा करते है । [२३] जो आचार्य सुखशील आदि गुण द्वारा नवकल्प रूप या गीतार्थरूप विहार को शिथिल करते है वो आचार्य संयमयोग द्वारा केवल वेशधारी ही है ।
[२४] कुल, गाँव, नगर और राज्य का त्याग करके भी जो आचार्य फिर से उस कुल आदि में ममत्व करते है, उस संयमयोग द्वारा निःसार केवल वेशधारी ही है ।
[२५] जो आचार्य शिष्यसमूह को करनेलायक कार्य में प्रेरणा करते है और सूत्र एवं अर्थ पढ़ाते है, वह आचार्य धन्य है, पवित्र है, बन्धु है और मोक्षदायक है ।
[२६] वही आचार्य भव्यजीव के लिए चक्षुसमान कहे है कि जो जिनेश्वर के बताए