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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[५१३-५१४] एकान्त लक्ष रखकर अति अनुराग पूर्वक इन्द्र भी जिस तीर्थंकर पद की इच्छा रखते है, ऐसे तीर्थंकर भगवंत सर्वोत्तम है । उसमें कोई संदेह नहीं । इसलिए समग्र देव, दानव, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य और चन्द्र आदि को भी तीर्थंकर पूज्य है । और वाकई में वो पाप नष्ट करनेवाले है ।
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[५१५-५१६] तीन लोक में पूजनीय और जगत के गुरु ऐसे धर्मतीर्थंकर की द्रव्यपूजा और भावपूजा ऐसे दो तरह की पूजा बताई है । चारित्रानुष्ठान और कष्टवाले उग्र घोर तप का आसेवन करना वो भावपूजा और देशविरति श्रावक जो पूजा-सत्कार और दान - शील आदि धर्म सेवन करे वो द्रव्य पूजा । इसलिए हे गौतम ! यहाँ इसका तात्पर्य इस प्रकार समजो -
[५१७] भाव-अर्चन प्रमाद से उत्कृष्ट चारित्र पालन समान है । जब कि द्रव्य अर्चन जिनपूजा समान है । मुनि के लिए भाव अर्चन है और श्रावक के लिए दोनो अर्चन बताए है । उसमें भाव अर्चन प्रशंसनीय है ।
[ ५१८] हे गौतम ! यहाँ कुछ शास्त्र के परमार्थ को न समजनेवाले अवसन्न शिथिलविहारी, नित्यवासि, परलोक के नुकशान के बारे में न सोचनेवाले, अपनी मति के अनुसार व्यवहार करनेवाले, स्वच्छंद, ऋद्धि, रस, शाता- गारव आदि में आसक्त हुए, राग-द्वेष, मोह- अंधकार-ममत्त्व आदि में अति प्रतिबद्ध रागवाले, समग्र संयम समान सद्धर्म से पराङ्मुख, निर्दय, लज्जाहीन, पाप की घृणा रहित, करुणा रहित, निर्दय, पाप आचरण करने में अभिनिवेशकदाग्रह बुद्धिवाला, एकान्त में जो अति चंड़, रूद्र और क्रुर अभिग्रह करनेवाली मिथ्यादृष्टि, सर्व संग, आरम्भ, परिग्रह से रहित होकर, त्रिविध - त्रिविध से (मन, वचन, काया से कृत, कारित, अनुमित से) द्रव्य से सामायिक ग्रहण करता है लेकिन भाव से ग्रहण नहीं करता, नाम मात्र ही मस्तक मुंडन करवाते है । नाम से ही अणगार-घर छोड़ दिया है । नाम का ही महाव्रतधारी है श्रमण होने बावजूद भी विपरीत मान्यता करके सर्वथा उन्मार्ग का सेवन और प्रवर्तन करते है । वो इस प्रकार
हम अरिहंत भगवंत की गन्ध, माला, दीपक, संमार्जन, लिंपन, वस्त्र, बलि, धूप आदि की पूजा सत्कार करके हमेशा तीर्थ की प्रभावना करते है । उसके अनुसार माननेवाले उन्मार्ग प्रवर्ता है । इस प्रकार उनके कर्तव्य साधु धर्म के अनुरूप नहीं है । हे गौतम ! वचन से भी उनके इस कर्तव्य की अनुमोदना नहीं करनी चाहिए ।
भगवंत ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वचन से भी उनके इस द्रव्यपूजन की अनुमोदना न करे ? हे गौतम ! उनके वचन के अनुसार असंयम की बहुलता और मूल गुण नष्ट हो इससे कर्म का आश्रव हो और फिर अध्यवसाय को लेकर स्थूल और सूक्ष्म शुभाशुभ कर्म प्रकृत्ति का बंध हो, सर्व सावद्य की की गई विरति समान महाव्रत का भंग हो, व्रत भंग होने से आज्ञा उल्लंघन का दोष लगे, उससे उन्मार्गगामीपन पाए, उससे सन्मार्ग का लोप हो, उन्मार्ग प्रवर्तन करना और सन्मार्ग का विप्रलोप करना यति के लिए महाआशातना समान है । क्योंकि वैसी महाआशातना करनेवाले को अनन्ता काल तक चार गति में जन्ममरण के फेरे करने पड़ते है । इस कारण से वैसे वचन की अनुमोदना नहीं करनी चाहिए ।