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महानिशीथ-३/-/४९२
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करनेवाला होता है । चार गति रूप भव के कैदखाने में से बाहर नीकलकर सर्व दुःख से विमुक्त होकर मोक्ष में गमन करनेवाला होता है । मोक्ष के भीतर सदा के लिए जन्म, बुढ़ापा, मरण, अनिष्ट का मिलन, इष्ट का वियोग, संताप, उद्धेग, अपयश, झूठा आरोप लगाना, बड़ी व्याधि की वेदना, रोग, शोक, दारिद्र, दुःख, भय, वैमनस्य आदि दुःख नहीं होते, फिर वहाँ एकान्तिक
आत्यन्तिक निरुपद्रवतावाला, मिला हुआ वापस न चला जाए ऐसा, अक्षय, ध्रुव, शाश्वत हमेशा रहनेवाला सर्वोत्तम सुख मोक्ष में होता है ।
यह सर्व सुख का मूल कारण ज्ञान है । ज्ञान से ही यह प्रवृत्ति शुरु होती है इसलिए हे गौतम ! एकान्तिक आत्यन्तिक, परम शाश्वत, ध्रुव, निरन्तर, सर्वोत्तम सुख की इच्छा वाले को सबसे पहले आदर सहित सामायिक सूत्र से लेकर लोकबिन्दुसार तक बारह अंग स्वरूप श्रुतज्ञान कालग्रहण विधिसहित आयंबिल आदि तप और शास्त्र में बताई विधिवाले उपधान वहन करने पूर्वक, हिंसादिक पाँच को त्रिविध त्रिविध से त्याग करके उसके पाप का प्रतिक्रमण करके सूत्र के स्वर, व्यंजन, मात्रा, बिन्दु पद, अक्षर, कम ज्यादा न बोल शके वैसे पदच्छेद दोष, गाथाबद्ध, क्रमसर, पूर्वानुपूर्वी, आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी सहित सुविशुद्ध गुरु के मुख से विधिवत् विनय सहित ग्रहण किया हो ऐसा ज्ञान एकांते सुंदर समझना ।।
हे गौतम ! आदि और बिना अन्त के किनारा रहित अति विशाल ऐसे स्वयंभूरमण समुद्र की तरह जिसमे दुःख से करके अवगाहन कर शकते है । समग्र सुख की परम कारण समान ही तो वो श्रुतज्ञान है । ऐसे ज्ञान सागर को पार करने के लिए इष्ट देवता को नमस्कार करना चाहिए । इष्ट देवता को नमस्कार किए बिना कोई उसको पार नहीं कर शकते इसलिए हे गौतम ! यदि कोई इष्ट देव हो तो नवकार । यानि कि पंचमंगल ही है । उसके अलावा दुसरे किसी इष्टदेव मंगल समान नहीं है । इसलिए प्रथम पंच मंगल का ही विनय उपधान करना जुरुरी है ।
[४९३] हे भगवंत ! किस विधि से पंचमंगल का विनय उपधान करे ? हे गौतम ! आगे हम बताएंगे उस विधि से पंच मंगल का विनय उपधान करना चाहिए ।।
अति प्रशस्त और शोभन तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग, लग्न, चन्द्रबल हो तब आँठ तरह के मद स्थान से मुक्त हो, शंका रहित श्रद्धासंवेग जिसके अति वृद्धि पानेवाले हो, अति तीव्र महान उल्लास पानेवाले, शुभ अध्यवसाय सहित, पूर्ण भक्ति और बहुमान से किसी भी तरह के आलोक या परलोक के फल की इच्छारहित बनकर लगातार पाँच उपवास के पञ्चक्खाण करके जिन मंदिर में जन्तुरहित स्थान में रहकर जिसका मस्तक भक्तिपूर्ण बना है। हर्ष से जिसके शरीर में रोमांच उत्पन्न हुआ है, नयन समान शतपत्रकमल प्रफुल्लित होता है । जिसकी नजर प्रशान्त, सौम्य, स्थिर है । जिसके हृदय सरवर में संवेग की लहरे उठी है ।
अति तीव्र, महान, उल्लास पानेवाले कई, घन-तीव्र आंतरा रहित, अचिंत्य, परम शुभ, परिणाम विशेष से आनन्दित होनेवाले, जीव के वीर्य योग से हर वक्त वृद्धि पानेवाले, हर्षपूर्ण शुद्ध अति निर्मल स्थिर निश्चल अंतःकरणवाले, भूमि पर स्थापन किया हो उस तरह से श्री ऋषभ आदि श्रेष्ठ धर्म तीर्थंकर की प्रतिमा के लिए स्थापन किए नैन और मनवाला उसके लिए