________________
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
महासत्त्वशाली हों या हीन सत्त्ववाला हो, महापराक्रमी हो या कायर हो, श्रमण हो या गृहस्थ हो, ब्राह्मन हो या निन्दित, अधम-नीच जातिवाला हो वहाँ अपनी श्रोत्रेन्द्रिय के उपयोग से, चक्षु इन्द्रिय के उपयोग से, रसनेन्द्रिय के उपयोग से, घ्राणेन्द्रिय के उपयोग से, स्पर्शेन्द्रिय के उपयोग से तुरन्त ही विषय प्राप्ति के लिए, तर्क, वितर्क, विचार और एकाग्र चितवाली बनेगी । एकाग्र चित्तवाली होकर उसका चित्त क्षोभायमान होगा । और फिर चित्त में मुजे यह मिलेगा या नहीं ? ऐसी द्वीधा में रहेंगे । उसके बाद शरीर में पसीना छूटेगा । उसके बाद आलोकपरलोक में ऐसी अशुभ सोच से नुकशान होगा । उसके विपाक मुझे कम-ज्यादा प्रमाण में भुगतने पड़ेगे वो बात उस वक्त उसके दिमाग से नीकल जाए तब लज्जा, भय, अपयश, अपकीर्ति, मर्यादा का त्याग करके ऊँचे स्थान से नीचे स्थान में बैठ जाते है । जितने में ऊँचे स्थान से नीचे स्थान पर परीणाम की अपेक्षा से हलके परीणामवाली उस स्त्री की आत्मा होती है । उतने में असंख्यात समय और आवलिका बीत जाते है ।
२००
जितने में असंख्यात समय और आवलिका चली जाती है । उतने में प्रथम समय से जो कर्म की दशा होती है । और दुसरे समय तीसरे समय उस प्रकार प्रत्येक समय यावत् संख्याता समय असंख्यात समय, अनन्त समय क्रमशः पसार होता है । तब आगे के समय पर संख्यातगुण, असंख्यातगुण, अनन्तगुण कर्म की दशा इकट्ठी करता है । यावत् असंख्यात उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी पुरी हो तब तक नारकी और तिर्यंच दोनों गति के लिए उत्कृष्ट कर्म स्थिति उपार्जन करे । इस प्रकार स्त्री विषयक संकल्पादिक योग से करोड़ लाख उत्सर्पिणीअवसर्पिणी तक भुगतना पड़े वैसे नरक तिर्यंच के उचित कर्मदशा उपार्जन करे ।
वहाँ से नीकलने के बाद भवान्तर में कैसे हालात सहने पड़ते है वो बताते है कि स्त्री की ओर दृष्टि या कामराग करने से उस पाप की परम्परा से कद्रुपता, श्याम देहवाला, तेज, कान्ति रहित, लावण्य और शोभा रहित, नष्ट होनेवाले तेज और सौभाग्यवाला और फिर उसे देखकर दुसरे उद्वेग पाए वैसे शरीरवाला होता है उसकी स्पर्शइन्द्रिय सीदती है । उसके बाद उसके नेत्र-अंग उपांग देखने के लिए रागवाले और अरुण - लाल वर्णवाले होते है । विजातीय की ओर नेत्र रागवाले होते है । जितने में नयनयुगल कामराग के लिए अरुणवर्णवाले मदपूर्ण बनते है ।
काम के रागांधपन से अति महान भारी दोष और ब्रह्मव्रत भंग, नियमभंग को नहीं गिनते, अति महान घोर पाप कर्म के आचरण को, शीलखंडन को नही गिनते अति महान सबसे भारी पापकर्म के आचरण, संयम विराधना की परवा नहीं करते । घोर अंधेरे समान नारकी रूप परलोक के भय को नहीं गिनते । आत्मा को भूल जाते है, अपने कर्म और गुणस्थानक को नहीं गिनते । देव और असुर सहित समग्र जगत को जिसकी आज्ञा अलंघनीय है उसकी भी परवा नहीं । ८४ लाख योनि में लाख बार परीवर्तन और गर्भ की परम्परा अनन्त बार करनी पड़ेगी । वो बात भी भूल जाते है । अर्ध पलक जितना काल भी जिसमें सुख नहीं है । और चारों गति में एकान्त दुःख है । यह जो देखनेलायक है वो नहीं दिखते और न देखने लायक देखते है ।
सर्वजन समुदाय इकट्टे हुए है । उनके बीच बैठी हुई या खड़ी होनेवाली, भूमि पर लैटी