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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
काययोग, समय, आवलिका, मुहर्त तक शल्यवाला होकर उसका फल तुम्हें दीर्घकाल तक सहना पड़ेगा उस वक्त वैसे दुःख को तू किस तरह सह शकेगा ?
[३६६] वो दुःख कैसे होगे ? चार गति और ८४ लाख योनि स्वरूप कईं भव और गर्भावास सहना पड़ेगा, जिसमें रात-दिन के प्रत्येक समय सतत घोर, प्रचंड़ महा भयानक दुःख सहना पड़ेगा - हाहा-अरेरे - मर गया रे ऐसे आक्रन्द करना पड़ेगा ।
[३६७] नारक और तिर्यंच गति में कोइ रक्षा करनेवाला या शरणभूत नहीं होते । बेचारे अकेले-अपने शरीर को किसी सहाय करनेवाला न मिले, वहाँ कटु और कठिन विरस पाप के फल भुगतना पड़े।
[३६८] नारकी तलवार की धार समान पत्रवाले पेड़ के बन में छाँव की इच्छा से जाए तो पवन से पत्ते शरीर पर भी पड़े यानि शरीर के टुकड़े हो । लहँ, परु, चरबी केशवाले दुर्गंधयुक्त प्रवाहवाली वैतरणी नदी में डूबना, यंत्र में पीलना, करवत से कटना । कंटकयुक्त शाल्मली पेड़ के साथ आलिंगन, कुंभी में पकाना, कौओ आदि पंछी की चौंच की मार सहना, शेर आदि जानवर के चबाने के दुःख और वैसे कईं दुःख नरकगति में पराधीन होकर भुगतना पड़े ।
[३६९-३७०] तिर्यंच को नाक-कान वींधना, वध, बँधन, आक्रंदन करनेवाले प्राणी के शरीर में से माँस काटे, चमड़ी उतारे, हल-गाड़ी को खींचना, अति बोझ वहन करने के लिए, धारखाली परोणी भोंकना, भूख प्यास का, लोह की कठिन नाल, पाँव में खीली लगाई है, बलात्कार से बाँधकर शस्त्र से अग्नि के डाम देकर अंकित करे । जलन उत्पन्न करनेवाली चीज के अंजन आँख में लगाए, आदि पराधीनपन के निर्दयता से कईं दुःख तिर्यंच के भव में भुगतना पड़े।
[३७१] कुंथुआ के पाँव के स्पर्श से उत्पन्न होनेवाली खुजली का दुःख तू यहाँ सहने के लिए समर्थ नहीं बन शकता तो फिर उपर कहे गए नरक तिर्यंचगति के अति भयानक महादुःख आएंगे तब उसका निस्तार-पार किस तरह पाएंगे ?
[३७२-३७४] नारकी और तिर्यंच के दुःख और कुंथुआ के पाँव के स्पर्श का दुःख वो दोनों दुःख का अंतर कितना है ? तो कहते है मेरु पर्वत के परमाणु को अनन्त गुने किए जाए तो एक परमाणु जितना भी कुंथु के पाँव के स्पर्श का दुःख नहीं है । यह जीव भव के भीतर लम्बे अरसे से सुख की आकांक्षा कर रहे है । उसमें भी उसे दुःख की प्राप्ति होती है । और फिर भूतकाल के दुःख का स्मरण करने से वो अति दुःखी हो जाता है । इस प्रकार कईं दुःख के संकट में रहे लाख आपदा से भरा ऐसे संसार में जीव बँसा है । उसमें अचानक मध्यबिन्दु प्राप्त हो जाए तो मिला हुआ सुख कोई न जाने दे, लेकिन...
[३७५] ...जो आत्मा पथ्य और अपथ्य, कार्य और अकार्य, हित और अहित सेव्यअसेव्य और आचरणीय - अनाचारणीय के फर्क का विवेक नहीं करता (धर्म-अधर्म को नहीं जानता) वो बेचारे आत्मा की भावि में कैसी स्थिति हो ?
[३७६] इसलिए यह सर्व हकीकत सुनकर दुःख का अन्त करनेवाले को स्त्री, परिग्रह और आरम्भ का त्याग करके संयम और तप की आसेवना करनी चाहिए ।