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महानिशीथ-२/१/२५०
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बादर । दुसरे बड़े दुःख विभाग रहित जानना । समुर्छिम मानव को सूक्ष्म और देव के लिए बादर दुःख होता है । महर्द्धिक देव को च्यवनकाल से बादर मानसिक दुःख हो हुकुम उठानेवाले सेवक-आभियोगिक देव को जन्म से लेकर जीवन के अन्त तक मानसिक बादर दुःख होता है । देव को शारीरिक दुःख नहीं होता । देवता का वज्र समान अति बलवान वैक्रिय हृदय होता है । वरना मानसिक दुःख से १०० टुकड़े होकर उसका हृदय भग्न होता है ।
२५१-२५२] बाकी के दो हिस्से रहित वो मध्यम और उत्तम दुःख । ऐसे दुःख गर्भज मानव के लिए मानो । अनगिनत साल की आयुवाले युगलीया को विमध्यम तरह का दुःख हो । गिनत साल के आयु वाले मानव को उत्कृष्ट दुःख ।
[२५३] अब दुःख के अर्थवाले पर्याय शब्द कहा है । असुख, वेदना, व्याधि, दर्द, दुःख, अनिवृत्ति, अणराग (बेचैनी) अरति, कलेश आदि कई ओकार्थिक पर्याय शब्द दुःख के लिए इस्तेमाल किए जाते है ।
| अध्ययन-२ उद्देशक-२ | [२५४] शारीरिक और मानसिक ऐसे दो भेदवाले दुःख बताए, उसमें अब हे गौतम ! वो शारीरिक दुःख अति स्पष्टतया कहता हूँ । उसे तुम एकाग्रता से सुनो ।
. [२५५-२६२] केशाग्र का लाख-क्रोडवां भाग हो केवल उतने हिस्से को छूए तो भी निर्दोषवृत्तिवाले कुंथुआ के जीव को इतना सारा दर्द हो कि यदि हमें कोई करवत से काटे या हृदय को या मस्तक को शस्त्र से भेदे तो हम थर-थर काँपे, वैसे कुंथुआ के सर्व अंग केवल छूने से पीड़ा हो उसे भीतर और बाहर भारी पीड़ा हो । उसके शरीर में कंपारी होने लगे, वो पराधीन वाचा रहित होने से वेदना नहीं बता शकते । लेकिन भारेला अनि सुलगे वैसे उसका मानसिक और शारीरिक दुःख अतिशय होता है । सोचते है कि यह क्या है ? मुझे यह भारी दर्द देनेवाला दुःख प्राप्त हुआ है, लम्बे उष्ण निसाँसे लेते है । यह दुःख का अन्त कब होगा? इस दर्द से कब छूटकारा मिलेगा ? इस दुःख के संकट से मुक्त होने के लिए क्या कोशीश करूँ ? कहाँ भाग जाऊँ ? क्या करूँ कि जिससे दुःख दूर हो और सुख मिले ? क्या करूँ? या क्या आच्छादन करू? क्या पथ्य करू ? इस प्रकार तीन कक्षा के व्यापार की कारण से तीव्र महादुःख के संकट में आकर फँस गया हूँ, संख्याती आवलिका तक मैं कलेशानुभव भुगतु, समजता हूँ कि यह मुजे खुजली आई है, किसी भी तरह यह खुजली शान्त नहीं होगी।
[२६३-२६५] यह अध्यवसायवाला मानव अब क्या करता है वो हे गौतम ! तुम सुनो अब यदि उस कुंथु का जीव कहीं ओर चला गया न होता तो वो खुजली खुजलाते खुजलाते उस कुंथु के जीव को मार डालते है । या दीवार के साथ अपने शरीर को घिसे यानि कुंथु का जीव क्लेश पाए यावत् मौत हो, मरते हुए कुंथुआ पर खुजलाते हुए वो मानव निश्चय से अति रौद्र ध्यान में पड़ा है । ऐसा समजो यदि वो मानव आर्त और रोद्र के स्वरूप को जाननेवाला हो तो ऐसा खुजलानेवाला शुद्ध आर्तध्यान करनेवाला है ऐसे समजो ।
[२६६] उसमें ही रौद्रध्यान में वर्तता हो वो उत्कृष्ट नरकायुष बाँधे और आर्त ध्यानवाला दुर्भगपन, स्त्रीपन, नापुरुषपन और तिर्यंचपन उपार्जन करे ।