________________
१८२
आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
उल्लंघन नहीं करूँगा उस तरह से केवली बने । यह मेरा शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है । मुझे सम्यक्त्व हुआ है । इस प्रकार की भावना से केवल ज्ञान होता है ।
[८८-९०] अनादि काल से आत्मा से जुडे पापकर्म के मैल को मैं साफ कर दुं ऐसी भावना से केवल ज्ञान होता है । अब प्रमाद से मैं कोई अन्य आचरण नहीं करूंगा इस भावना से केवल ज्ञान होता है । देह का क्षय हो तो मेरे शरीर आत्मा को निर्जरा हो, संयम ही शरीर का निष्कलंक सार है । ऐसी भावना से केवली बने । मन से भी शील का खंडन हो तो मुझे प्राणधारण नहीं करना और फिर वचन और काया से मैं शील का रक्षण करूँगा ऐसी भावना से केवली बने ।
( इस तरह कौन कौन - सी अवस्था में केवलज्ञान हुआ वो बताया )
[९१-९५] उस प्रकार अनादि काल से भ्रमण करते हुए भ्रमण करके मुनिपन पाया। कुछ भव में कुछ आलोचना सफल हुई । हे गौतम! किसी भव में प्रायश्चित् चित्त की शुद्धि करनेवाला बना... क्षमा रखनेवाला, इन्द्रिय का दमन करनेवाला, संतोषी, इन्द्रिय को जीतनेवाला, सत्यभाषी, छ काय जीव के समारम्भ से त्रिविध से विरमित, तीन दंड़-मन, वचन काया दंड से विरमित स्त्री के साथ भी बात न करनेवाला, स्त्री के अंग- उपांग को न देखनेवाला, शरीर की ममता न हो, अप्रतिबद्ध विहारी यानि विहार के क्षेत्रकाल या व्यक्ति के लिए राग न हो, महा सारा आशयवाला स्त्री के गर्भ वास में रहने से भयभीत, संसार के कई दुःख और भय से त्रस्त... इस तरह के भाव से (गुरु समक्ष अपने दोष प्रकट करने आनेवाला) आलोचक को आलोचना देना । आलोचक ने (भी) गुरु को दिया प्रायश्चित् करना जिस क्रम से दोष सेवन किया हो उस क्रम से प्रायश्चित् करना चाहिए |
[९६-९८] आलोचना करनेवाले को माया दंभ - शल्य से कोई आलोचना नही करनी चाहिए । उस तरह की आलोचना से संसार की वृद्धि होती है... अनादि अनन्तकाल से अपने कर्म से दुर्मतिवाले आत्मा ने कईं विकल्प समान कल्लोलवाले संसार समुद्र में आलोचना करने के बाद भी अधोगति पानेवाले के नाम बताऊँ उसे सुन कि जो आलोचना सहित प्रायश्चित् पाए हुए और भाव दोष से कलुषित चितवाले हुए है ।
[९९-१०२] शल्य सहित आलोचना- प्रायश्चित् करके पापकर्म करनेवाले नराधम, घोर अति दुःख से सह शके वैसे अति दुःसह दुःख सहते हुए वहाँ रहते है । भारी असंयम सेवन करनेवाला और साधु को नफरत करनेवाला, दृष्ट और वाणी विषय से शील रहित और मन से भी कुशीलवाले, सूक्ष्म विषय की आलोचना करनेवाले, “दुसरों ने ऐसा किया उसका क्या प्रायश्चित् ? ऐसा पूछकर खुद प्रायश्चित् करे थोड़ी-थोड़ी आलोचना करे, थोड़ी भी आलोचना न करे, जिसने दोष सेवन नहीं किया उसकी या लोगो के रंजन के लिए दूसरों के सामने आलोचना करे, " मैं प्रायश्चित् नहीं करूँगा" वैसे सोचकर या छल पूर्वक आलोचना करे । [१०३ - १०५] माया, दंभ और प्रपंच से पूर्वे किए गए तप और आचरण की बाते करे, मुझे कोई भी प्रायश्चित् नहीं लगता ऐसा कहे या किए हुए दोष प्रकट न करे, पास में किए दोष प्रकट करे... छोटे-छोटे प्रायश्चित् माँगे, हम ऐसी चेष्टा प्रवृत्ति करते है कि आलोचना लेने का अवकाश नहीं रहता । ऐसा कहे कि शुभ बंध हो वैसी आलोचना माँगे । मैं बड़ा प्रायश्चित् करने के लिए अशक्त हूँ । अगर मुजे ग्लान- बिमारी की सेवा करनी है ऐसा कहकर
-