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व्यवहार-१०/२४९
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जव मध्य चन्द्र प्रतिमाधारी साधु को शुकल पक्ष की एकम को एक दत्ति अन्न - एक दत्ति पानी लेना कल्पे । सभी दो पगे, चोपगे जो कोई आहार की इच्छावाले है उन्हें आहार मिल गया हो, कईं तापस, ब्राह्मन, अतिथि, कृपण, दरिद्री, याचक, भीक्षा ले जाने के बाद निदोर्ष आहार ग्रहण करे । उस साधु को जहाँ अकेले खानेवाला हो वहाँ से आहार लेना कल्पे, लेकिन दो, तीन, चार, पाँच के जमण में से लेना न कल्पे । तीन मास से ज्यादा गर्भवाली के हाथ से, बच्चे के हिस्से में से या बच्चा अलग करे तो न ले । बच्चे को दूध पिलाती स्त्री के हाथ से न ले | घर में दहलीज के भीतर या बाहर दोनों पाँव रखकर दे तो न ले लेकिन एक पाँव दहलीज के भीतर और एक बाहर हो और दे तो लेना कल्पे । उस तरह से न दे तो लेना न कल्पे ।
शुक्ल पक्ष की बीज को यानि दुसरे दिन अन्न की और पानी की दो दत्ति, त्रीज को तीन दत्ति उस तरह से पूनम को यानि पंद्रहवे दिन अन्न-पानी की पंद्रह दत्ति ग्रहण करे । फिर कृष्ण पक्ष में एकम को चौदह दत्ति अन्न की, चौदह दत्ति पानी की, बीज को तेरह दत्ति अन्न, तेरह दत्ति पानी की यावत् चौदश को एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना कल्पे। अमावास को साधु आहार न करे । उस प्रकार निश्चय से यह जव मध्य प्रतिमा बताई, वो सूत्र-कल्प-मार्ग में बताए अनुसार यथातथ्य सम्यक् तरह से काया थकी छूकर, पालन करके, शोधनकर, पार करके, किर्तन करके, आज्ञानुसार पालन करना ।
[२५०] व्रज मध्य प्रतिमा (यानि अभिग्रह विशेष) धारण करनेवाले को काया की ममता का त्याग, उपसर्ग सहना आदि सब ऊपर के सूत्र २४९ में कहने के मुताबिक जानना। विशेष यह कि प्रतिमा का आरम्भ कृष्ण पक्ष से होता है । एकम को पंद्रह दत्ति अन्न की
और पंद्रह दत्ति पानी को लेकर तप का आरम्भ हो यावत् अमावास तक एक-एक दत्ति कम होने से अमावास को केवल एक दत्ति अन्न और एक दत्ति पानी की ले । फिर शुकल पक्ष में क्रमशः एक-एक दत्ति अन्न और पानी की बढ़ती जाए । शुकल एकम की दो दत्ति अन्न
और पानी की लेना कल्पे, यावत् चौदस को पंद्रह दत्ति अन्न और पानी की ले और पूनम को उपवास करे ।
[२५१] व्यवहार पाँच तरह से बताए है । वो इस प्रकार आगम, श्रुत् आज्ञा, धारणा और जीत, जहाँ आगम व्यवहारी यानि कि केवली या पूर्वधर हो वहाँ आगम व्यवहार स्थापित करना । जहाँ आगम व्यवहारी न हो वहाँ सूत्र (आयारो आदि) व्यवहार स्थापित करना, जहाँ सूत्र ज्ञाता भी न हो वहाँ आज्ञा व्यवहार स्थापना, जहाँ आज्ञा व्यवहारी न हो वहाँ धारणा व्यवहार स्थापित करना और धारणा व्यवहारी भी न हो वहाँ जीत यानि कि परम्परा से आनेवाला व्यवहार स्थापित करना ।
इस पाँच व्यवहार से करके व्यवहार स्थापित करे तो इस प्रकार-आगम, सूत्र, आज्ञा, धारणा, जीत वैसे उस व्यवहार संस्थापित करे, हे भगवंत् ! ऐसा क्यों कहा? आगम बलयुक्त साधु को वो पूर्वोक्त पाँच व्यवहार को जिस वक्त जो जहाँ उचित हो वो वहाँ निश्रा रहित उपदेश और व्यवहार रखनेवाले साधु आज्ञा के आराधक होता है ।
२५२-२५९] चार तरह के पुरुष के (अलग-अलग भेद है वो) कहते है । (१) उपकार करे लेकिन मान न करे, मान करे लेकिन उपकार न करे, दोनों करे, दोनों में से एक