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व्यवहार-६/१४९
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मूत्र का त्याग करे, शुद्धि करे, वैयावच्च करनेका सामर्थ्य हो तो इच्छा हो तो वैयावच्च करे, इच्छा न हो तो वैयावच्च न करे, उपाश्रय में एक-दो रात्रि निवास करे या उपाश्रय के बाहर एक-दो रात्रि निवास करे तो जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता ।
[१५०] गणावच्छेदक के गण के लिए दो अतिशय बताए है । गणावच्छेदक उपाश्रय में या उपाश्रय के बाहर एक या दो रात निवास करे तो जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता ।
[१५१] वो गाँव, नगर, राजधानी यावत् संनिवेश के लिए, एक ही आँगन, एक ही द्वार-प्रवेश , निर्गमन का एक ही मार्ग हो वहाँ कई अतिथि साधु को (श्रुत के अज्ञान को) इकट्ठे होकर रहना न कल्पे । यदि वहाँ आचार प्रकल्प के ज्ञात साधु हो तो रहना कल्पे लेकिन यदि न हो तो वहाँ जितने दिन रहे उतने दिन का तप या छेद प्रायश्चित् आता है ।।
[१५२] वो गाँव यावत् संनिवेश के लिए अलग वाड हो, दरवाजे और आने-जाने के मार्ग भी अलग हो वहाँ कई अगीतार्थ साधु को और श्रुत अज्ञानी को इकट्ठे होकर रहना न कल्पे । यदि वहाँ कोई एक आचार प्रकल्प-निसीह आदि को जाननेवाले हो तो उनके साथ तीन रात में आकर साथ रहना कल्पे । ऐसा करते-करते किसी छेद या परिहार तप प्रायश्चित् नहीं आता । लेकिन यदि आचार प्रकल्पधर कोई साधु वहाँ न हो तो जो साधु तीन रात वहाँ निवास करे तो उन सबको जितने दिन रहे उतने दिन का तप या छेद प्रायश्चित् आता है ।
[१५३-१५४] वो गाँव यावत् संनिवेश के लिए कई वाड-दरवाजा आने-जाने का मार्ग हो वहाँ बहुश्रुत या कई आगम के ज्ञाता का अकेले रहना न कल्पे, यदि उन्हें न कल्पे तो अल्पश्रुतधर या अल्प आगमज्ञाता को किस तरह कल्पे ? यानि न कल्पे, लेकिन एक ही वाड, एक दरवाजा, आने जाने का एक ही मार्ग हो वहाँ बहुश्रुत - आगमज्ञाता साधु एकाकीपन से रहना कल्पे । वहाँ ऊभयकाल श्रमण भाव में जागृत रहकर अप्रमादी होकर सावधान होकर विचरे ।
[१५५] जिस जगह कई स्त्री-पुरुप मोह के उदय से मैथुन कर्म प्रारम्भ कर रहे तो वो देखकर श्रमण-दुसरे किसी अचित्त छिद्र में शुक्र पुद्गल नीकाले या हस्तकर्म भाव से सेवन करे तो एक मास का गुरु प्रायश्चित् आता है । लेकिन यदि हस्तकर्म की बजाय मैथुन भाव से सेवन करे तो गुरु चौमासी प्रायश्चित् आता है ।
[१५६-१५९] साधु या साध्वी को दुसरे गण से आए हुए, स्वगण में रहे साध्वी या जो खंड़ित-शबल भेदित या संक्लिष्ट आचारवाले है । और फिर जिस साध्वी ने उस पाप स्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण, निंदा, गर्हा, निर्मलता, विशुद्धि नहीं की, न करने के लिए तत्पर नहीं हो । दोष के अनुसार उचित प्रायश्चित् नहीं किया । ऐसे साध्वी को सातां पूछना, संवास करना, सूत्रादि वांचना देनी, एक मांडली भोजन लेना, थोड़े वक्त के बाद जावज्जीव का पदवी देना या धारण करना न कल्पे, लेकिन यदि उस पाप स्थानक की आलोचना, प्रतिक्रमण आदि करके फिर से वो पाप सेवन न करने के लिए बेचैन हो, उचित प्रायश्चित् ग्रहण करे, तो उसे एक मंडली में स्थापित करने यावत् पदवी देना कल्पे ।
उद्देशक-६-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण