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[१०१-१०२] गणावच्छेदक को खुद सहित तीन को वर्षावास रहना न कल्पे, चार को कल्पे ।
व्यवहार-४/१०१
[१०३-१०४] वे गाँव, नगर निगम, राजधानी, खेड़ा, कसबो, मंड़प, पाटण, द्रोणमुख, आश्रम, संवाह सन्निवेश के लिए अनेक आचार्य, उपाध्याय खुद के साथ दो, अनेक गणावच्छेदक को खुद के साथ तीन को आपस में गर्मी या शीत कालमें में विचरना कल्पे और अनेक आचार्य - उपाध्याय को खुद के साथ तीन और अनेक गणावच्छेदक को खुद के साथ चार को अन्योन्य निश्रा में वर्षावास रहना कल्पे ।
[१०५-१०६] एक गाँव से दुसरे गाँव विचरते, या चातुर्मास रहे साधु जो आचार्य आदि को आगे करके विचरते हो वो आचार्य आदि शायद काल करे तो अन्य किसी को अंगीकार करके उस पदवी पर स्थापित करके विचरना कल्पे । यदि किसी को कल्पाक-वडील रूप से स्थापन करने के उचित न हो और खुद आचार प्रकल्प - निसीह पढ़े हुए न हो तो उसको एक रात्री की प्रतिज्ञा अंगीकार करना, जिन दिशा में दुसरे साधर्मिक- एक मांडलीवाले साधु विचरते हो वो दिशा ग्रहण करना । जो कि उसे विहार निमित्त से वहाँ रहना न कल्पे लेकिन बिमारी आदि की कारण से वहाँ बँसना कल्पे, उसके बाद कोई साधु ऐसा कहे कि हे आर्य ! एक या दो रात यहाँ रहो, तो एक, दो रात वहाँ रहे यदि उससे ज्यादा रहे तो उसे उतनी रात का छेद या तप प्रायश्चित् आता है ।
[१०७-१०८] आचार्य - उपाध्याय बिमारी उत्पन्न हो तब या वेश छोडकर जाए तब दुसरों को ऐसा कहे कि हे आर्य ! मैं काल करु तब इसे आचार्य की पदवी देना । वे यदि आचार्य पदवी देने के योग्य हो तो उसे पदवी देना । योग्य न हो तो न देना । यदि कोई दुसरे वो पदवी देने के लिए योग्य हो तो उसे देना, यदि कोई वो पदवी के लिए योग्य न हो तो पहले कहा उसे ही पदवी देना । पदवी देने के बाद कोई साधु ऐसा कहे कि हे आर्य ! तेरी यह पदवी दोषयुक्त है । इसलिए छोड़ दो। ऐसा कहने से वो साधु पद छोड दे तो उसे दीक्षा का छेद या तप का प्रायश्चित् नहीं होता । यदि पद छोडने योग्य हो और पदवी न छोडे तो उन सबको और पदवीघर को दीक्षा का छेद या परिहारतप प्रायश्चित् आता है ।
[१०९-११०] आचार्य-उपाध्याय जो नव दीक्षित छेदोपस्थापनीय ( बड़ी दीक्षा) को उचित हुआ है ऐसा जानने के बाद भी या विस्मरण होने से उसके वडील चार या पाँच रात से ज्यादा उस नव दीक्षित को उपस्थापना न करे तो आचार्य आदि को प्रायश्चित् आता है। यदि उसके साथ पिता आदि किसी वडील ने दीक्षा ली हो और पाँच, दस या पंद्रह रात के बाद दोनों को साथ में उपस्थापन करे तो किसी छेद या परिहार प्रायश्चित् नहीं आता । लेकिन यदि वडील की उपस्थापना न करनी हो फिर भी नवदीक्षित की उपस्थापना न करे तो जितने दिन उपस्थापना न करे उतने दिन का छेद या परिहार तप प्रायश्चित् आता है ।
[१११] आचार्य - उपाध्याय स्मरण रखे या भूल जाए या नवदीक्षित साधु को ( नियत वक्त के बाद) भी दशरात्रि जाने के बाद भी उपस्थापना (वड़ी दीक्षा) हुई नहीं । नियत सूत्रार्थ प्राप्त उस साधु के किसी वडील हो और उसे वडील रखने के लिए वो पढे नहीं तब तक साधु को उपस्थापना न करे तो कोई प्रायश्चित् नहीं आता लेकिन यदि किसी ऐसी कारण बिना
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