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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
[ ३१-३२] जो साधु गण (गच्छ) को छोड़कर ( कारणविशेष) पर पाखंड़ी रूप से विचरे फिर उसी गण (गच्छ) को अंगीकार करके विहरना चाहे तो उस साधु को चारित्र छेद या परिहार तप प्रायश्चित् की किसी प्रत्यक्ष कारण नहीं दिखती, केवल उसे आलोचना देना, लेकिन जो साधु गच्छ छोड़कर गृहस्थ पर्याय धारण करे वो फिर उसी गच्छ में आना चाहे तो उसे छेद या परिहार तप प्रायश्चित् नहीं है । उसे मूल से ही फिर से दीक्षा में स्थापन करना चाहिए। [३३-३५] जो साधु अन्य किसी अकृत्य स्थान ( न करने लायक स्थान ) सेवन करके आलोचना करना चाहे तो जहाँ खुद के आचार्य उपाध्याय हो वहाँ जाकर उनसे विशुद्धि करवाना कल्पे । फिर से वैसा करने के लिए तत्पर होना और योग्य तप रूप कर्म द्वारा प्रायश्चित् ग्रहण करना । यदि अपने आचार्य उपाध्याय पास में न मिले तो जो गुणग्राही गम्भीर साधर्मिक साधु बहुश्रुत, प्रायश्चित् दाता, आगम ज्ञाता ऐसे सांभोगिक एक मांडलीवाले साधु हो उनके पास दोष का सेवन करके साधु आलोचन आदि करके शुद्ध हो, अब यदि एक मांडलीवाले ऐसे साधर्मिक साधु न मिले तो ऐसे ही अन्य गच्छ के सांभोगिक, वो भी न मिले तो ऐसे ही वेशधारी साधु, वो भी न मिले वो ऐसे ही श्रावक कि जिन्होंने पहले साधुपन रखा है और बहुश्रुत - आगम ज्ञाता है लेकिन हाल में श्रावक है, वो भी न मिले तो समभावी गृहस्थज्ञाता और वो भी न मिले तो बाहर नगर निगम, राजधानी, खेड़ा, कसबा, मंडप, पाटण, द्रोणमुख, आश्रम या संनिवेश के लिए पूर्व या उत्तर दिशा के सामने मुख करके दो हाथ जुड़कर मस्तक झुकाकर, मस्तक से अंजलि देकर वो दोष सेवन करके साधु इस प्रकार
कि जिस तरह मेरा अपराध है, "मैं अपराधी हूँ' ऐसे तीन बार बोले फिर अरिहंत और सिद्ध की मौजूदगी में आलोचना करे, प्रतिक्रमण, विशुद्धि करे फिर वो पाप न करने के लिए सावध हो और फिर अपने दोष के मुताबिक योग्य तपकर्म रूप प्रायश्चित् ग्रहण करे । (संक्षेप में कहा जाए तो अपने आचार्य-उपाध्याय, वो न मिले तो बहुश्रुत- बहुआगमज्ञाता ऐसे सांभोगिक साधु - फिर अन्य मांडलीवाले सांभोगिक, फिर वेशधारी साधु, फिर दीक्षा छोड़ दी हो और वर्तमान में श्रावक हो वो - फिर सम्यकदृष्टि गृहस्थ, फिर अपने आप ईस तरह आलोचना करके शुद्ध बने ।) इस प्रकार मैं ( तुम्हें ) कहता हूँ ।
उद्देशक - १ - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण उद्देशक - २
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[३६-३७] एक सामाचारी वाले और साधु के साथ विचरते हो तब उसमें से एक अकृत्य स्थानक को यानि दोष सेवन करे फिर आलोचना करे तब उसे प्रायश्चित् स्थान में स्थापित करना और दुसरे को वैयावच्च करना, लेकिन यदि दोनों अकृत्य स्थानक का सेवन करे तो एक की वडील की तरह स्थापना करके दुसरे को परिहार तप में रखना, उसका तप पूरा होने पर से वडील की तरह स्थापित करके और पहले को परिहार तप में स्थापित करना । [३८-३९] एक समाचारी वाले कईं साधु साथ में विचरते हो और उसमें से एक दोष का सेवन करे, फिर आलोचना करे तो उसे परिहार तप के लिए स्थापित करना और दुसरे उसकी वैयावच्च करे, यदि सभी साधु ने दोष का सेवन किया हो तो एक को वडीलरूप में