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बृहत्कल्प - ६/२१३
लोलुप बन गई हो तब इन सभी हालात में उस साध्वी को साधु ग्रहण करे, रोके, दूर ले जाए या सांत्वन आदि दे तो जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं होता ।
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[२१४] कल्प यानि साधु-साध्वी की आचारमर्यादा के छ परिमन्थ अर्थात् घातक कहलाए है । इस प्रकार कौकुत्व्य यानि कुचेष्टा या भांड़ चेष्टा संयम की घातक है, मौखर्यवाचाल लेकिन सत्य वचन की घातक है, तिंतिनक - यह लोभी है आदि बबड़ाट एषणा समिति का घातक है, चक्षु की लोलुपता ईर्या समिति की घातक है, इच्छा लोलुपता अपरिग्रहपन की घातक है और लोभ या वृद्धि से नियाणा करना मोक्षमार्ग-समकित के घातक है । क्योंकि भगवंत ने सभी जगह अनिदानकरण की ही प्रशंसा की है ।
[२१५] कल्पदशा (साधु-साध्वी की आचार मर्यादा) छ तरह की होती है । वो इस प्रकार सामायिक चारित्रवाले की छेदोपस्थापना रूप, परिहार विशुद्धि तप स्वीकार करनेवाले की, पारिहारिक तप पूरे करनेवाले की, जिनकल्प की और स्थविर कल्प की ऐसे छ तरह की आचार मर्यादा है । (विस्तार से समजने के लिए भाष्य और वृत्ति देखो ) इस प्रकार मैं ( तुम्हें)
हूँ ।
३५ | बृहत्कल्प - छेदसूत्र - २ - हिन्दी अनुवाद पूर्ण