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निशीथ-१९/१३५७
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अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।।
[१३५८-१३६९] जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ, पासत्था, अवसन्न, कुशील, नीतिय या संसक्त को वाचना दे, दिलाए, देनेवाले की अनुमोदना करे या उनके पास से सूत्रार्थ पढ़े, स्वीकार करे, स्वीकार करने के लिए कहे, स्वीकार करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित् ।
(नोंध :- पासत्था, अवसन्न, कुशील, नीतिय और संसक्त का अर्थ एवं, समज उद्देशक १३ के सूत्र ८३० से ८४९ में दी गई है वहाँ से समज लेना ।)
इस प्रकार उद्देशक-१९ में बताए किसी भी दोष का खुद सेवन करे, दुसरों से करवाए या ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो चातुर्मासिक परिहारस्थान, उद्घातिक प्रायश्चित् आता है जिसे 'लघुचौमासी' प्रायश्चित् भी कहते है ।
(उद्देशक-२० “निसीह" सूत्र के इस उद्देसा में १३७० से १४२० ईस तरह से कुल ५१ सूत्र है। इस उद्देशक में प्रायश्चित् की विशुद्धि के लिए क्या प्रायश्चित् करना ? वो बताया है ।
[१३७०-१३७४] जो साधु-साध्वी एक मास का - एक महिने का निर्वर्तन योग्य परिहार स्थान यानि कि पाप या पापजनक सावध कर्मानुष्ठान का सेवन करके गुरु के पास अपना पाप प्रदर्शित करे यानि कि आलोचना करे तब माया, कपट किए बिना यानि कि निःशल्य आलोचना करे तो एक मास का ही प्रायश्चित् आता है लेकिन यदि माया-कपट से यानि कि शल्ययुक्त आलोचना की हो तो वो प्रायश्चित् दो मास का आता है ।
उसी तरह दो, तीन, चार, पाँच मास निर्वतन योग्य पापजनक सावध कर्मानुष्ठान का सेवन करने के बाद गुरु के समक्ष आलोचना करे तब कोई भी छल बिना आलोचना करे तो उतने ही मास का और शल्ययुक्त आलोचना करे तो १-१ अधिक मास का प्रायश्चित् आता है, जैसे कि दो मास के बाद निर्वतन पाए ऐसे, पाप की निष्कपट आलोचना दो मास का प्रायश्चित्, सशल्य आलोचना तीन मास का प्रायश्चित्, लेकिन छ मास से ज्यादा प्रायश्चित् कभी नहीं आता । सशल्य या निःशल्य आलोचना का महत्तम प्रायश्चित् छ मास समजना।
[१३७५-१३७९] जो साधु-साध्वी कईंवार (एक नहीं दो नहीं लेकिन तीन-तीन बार एक मास के बाद निर्वतन पाए ऐसा पाप-कर्मानुष्ठान सेवन करके गुरु के समक्ष आलोचना करे तब भी ऋजु भाव से आलोचना करे तो एक मास और कपट भाव से आलोचना करे तो दो मास का प्रायश्चित् आता है ।
उसी तरह से दो, तीन, चार, पाँच मास निर्वतन योग्य पाप के लिए निःशल्य आलोचना से उतना ही और सशल्य आलोचना से एक-एक मास ज्यादा प्रायश्चित् और छ मास के परिहारस्थान सेवन के लिए निःशल्य या सशल्य किसी भी आलोचना का प्रायश्चित् छ महिने का ही आता है ।
[१३८०-१३८१] जो साधु-साध्वी एक बार या कई बार के लिए एक, दो, तीन, चार या पाँच मास से निर्वर्तन हो ऐसे पाप कर्म का सेवन करके उसी तरह के दुसरे पापकर्म (परिहारस्थान) का सेवन करे तो भी उसे उपर कहने के मुताबिक निःशल्य आलोचना करे तो