SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद है । उसका रुचक जैसा आकार है । वह सम्पूर्णतः तपनीय स्वर्णमय है, स्वच्छ है। दो पद्मवखेदिकाओं तथा दो वनखण्डों द्वारा सब ओर से घिरा है । निषध वर्षधर पर्वत के ऊपर एक बहुत समतल तथा सुन्दर भूमिभाग है, जहाँ देवदेवियाँ निवास करते हैं । उस भूमिभाग में ठीक बीच में एक तिगिंछद्रह द्रह है । वह पूर्वपश्चिम लम्बा है, उत्तर-दक्षिण चौड़ा है । वह ४००० योजन लम्बा २००० योजन चौड़ा तथा १० योजन जमीन में गहरा है । वह स्वच्छ, स्निग्ध तथा रजतमय तटयुक्त है । उस तिगिंछद्रह के चारों ओर तीन-तीन सीढ़ियाँ बनी हैं । शेष वर्णन पद्मद्रह के समान है । परम ऋद्धिशालिनी, एक पल्योपम के आयुष्य वाली धृति देवी वहाँ निवास करती है । उसमें विद्यमान कमल आदि के वर्ण, प्रभा आदि तिगिच्छ-परिमल के सदृश हैं । अतएव वह तिगिंछद्रह कहलाता है। [१३९] उस तिगिंछद्रह के दक्षिणी तोरण से हरिसलिला महानदी निकलती है । वह दक्षिण में उस पर्वत पर ७४२१-१/१९ योजन बहती है । घड़े के मुँह से निकलते पानी की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वह वेगपूर्वक प्रपात में गिरती है । उस समय उसका प्रवाह कुछ अधिक ४०० योजन का होता है । शेष वर्णन हरिकान्ता महानदी समान है । नीचे जम्बद्वीप की जगती को विदीर्ण कर वह आगे बढ़ती है । ५६००० नदियों से आपूर्ण वह महानदी पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है । शेष कथन हरिकान्ता महानदी समान है । तिगिछद्रह के उत्तरी तोरण से शीतोदा महानदी निकलती है । वह उत्तर में उस पर्वत पर ७४२१-१/१९ योजन बहती है । घड़े के मुँह से निकलते जल की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक वह प्रपात में गिरती है । तब उसका प्रवाह कुछ अधिक ४०० योजन होता है । शीतोदा महानदी जहाँ से गिरती है, वहाँ एक विशाल जिबिका है । वह चार योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी तथा एक योजन मोटी है । उसका आकार मगरमच्छ के खुले हुए मुख के आकार जैसा है। वह संपूर्णतः वज्ररत्नमय है, स्वच्छ है । शीतोदा महानदी जिस कुण्ड में गिरती है, उसका नाम शीतोदाप्रपातकुण्ड है । उसकी लम्बाई-चौड़ाई ४८० योजन है । परिधि कुछ कम १५१८ योजन है । शेष पूर्ववत् । शीतोदाप्रपातकुण्ड के बीचोंबीच शीतोदाद्वीप है । उसकी लम्बाई-चौड़ाई ६४ योजन है, परिधि २०२ योजन है । वह जल के ऊपर दो कोस ऊँचा उठा है । वह सर्ववज्ररत्नमय है, स्वच्छ है । शेष वर्णन पूर्ववत् । उस शीतोदाप्रपातकुण्ड के उत्तरी तोरण से शीतोदा महानदी आगे निकलती है । देवकुरुक्षेत्र में आगे बढ़ती है । चित्र-विचित्र कूटों, पर्वतों, निषध, देवकुरु, सूर, सुलस एवं विद्यात्प्रभ नामक द्रहों को विभक्त करती हुई जाती है । उस बीच उसम ८४००० नदियाँ मिलती हैं । वह भद्रशाल वन की ओर आगे जाती है । जब मन्दर पर्वत दो योजन दूर रह जाता है, तब वह पश्चिम की ओर मुड़ती है । नीचे विद्युत्प्रभ नामक वक्षस्कार पर्वत को भेद कर मन्दर पर्वत के पश्चिम में पश्चिम विदेहक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करती है । उस बीच उसमें १६ चक्रवर्ती विजयों में से एक-एक से अट्ठाईस-अठ्ठाईस हजार नदियाँ आ मिलती हैं । इस प्रकार ४४८००० ये तथा ८४००० पहले की कुल ५३२००० नदियों से आपूर्ण वह शीतोदा महानदी नीचे जम्बूद्वीप के पश्चिम दिग्वर्ती जयन्त द्वार की जगती को विदीर्ण कर पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है ।
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy