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________________ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति-३/६२ अचिरोद्गत बालचन्द्र-जैसा एवं इन्द्रधनुष जैसा था । उत्कृष्ट, गर्वोद्धत भैंसे के सदृढ, सघन सींगों की ज्यों निश्छिद्र था । उस धनुष का पृष्ठ भगा उत्तम नाग, महिषश्रृंग, श्रेष्ठ कोकिल, भ्रमरसमुदाय तथा नील के सदृश उज्ज्वल काली कांति से युक्त, तेज से जाज्वल्यमान एवं निर्मल था । निपुण शिल्पी द्वारा चमकाये गये, देदीप्यमान मणियों और रत्नों की घंटियों के समूह से वह परिवेष्टित था । बिजली की तरह जगमगाती किरणों से युक्त, स्वर्ण से परिबद्ध तथा चिह्नित था । दर्दर एवं मलय पर्वत के शिखर पर रहनेवाले सिंह के अयाल तथा चँवरी गाय की पूंछ के बालों के उस पर सुन्दर, अर्ध चन्द्राकार बन्ध लगे थे । काले. हरे. लाल. पीले तथा सफेद स्नायुओं की प्रत्यञ्चा बंधी थी । शत्रुओं के जीवन का विनाश करने में वह सक्षम था । राजा ने वह धनुष पर बाण चढ़ाया । बाण की दोनों कोटियां उत्तम वज्र-से बनी थीं । उसका मुख वज्र की भांति अभेद्य था । उसकी पुंख-स्वर्ण में जड़ी हुई चन्द्रकांत आदि मणियों तथा रत्नों से सुसज्ज था । उस पर अनेक मणियों और रत्नों द्वारा सुन्दर रूप में राजा भरत का नाम अंकित था । भरत ने धनुष चढ़ाने के समय प्रयुक्त किये जाने वाले विशेष पादन्यास में स्थित होकर उस उत्कृष्ट बाण को कान तक खींचा और वह यों बोला [६३] मेरे द्वारा प्रयुक्त बाण के बहिर्भाग में तथा आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्णकुमार आदि देवो । मैं आपकों प्रणाम करता हूँ। [६४] आप उसे स्वीकार करें । यों कहकर राजा भरत ने बाण छोड़ा । [६५] मल्ल जब अखाड़े में उतरता है, तब जैसे वह कमर बांधे होता है, उसी प्रकार भरत युद्धोचित वस्त्र-बन्ध द्वारा अपनी कमर बांधे था । उसका कौशेय-पहना हुआ वस्त्रविशेष हवा से हिलता हुआ बड़ा सुन्दर प्रतीत होता था । .. [६६] विचित्र, उत्तम धनुष धारण किये वह साक्षात् इन्द्र की ज्यों सुशोभित हो रहा था, विद्युत् की तरह देदीप्यमान था । पञ्चमी के चन्द्र सदृश शोभित वह महाधनुष राजा के विजयोद्यत बायें हाथ में चमक रहा था । [६७] राजा भरत द्वारा छोड़े जाते ही वह बाण तुरन्त बारह योजन तक जाकर मागध तीर्थ के अधिपति-के भवन में गिरा । मागध तीर्थाधिपति देव तत्क्षण क्रोध से लाल हो गया, रोषयुक्त, कोपाविष्ट, प्रचण्ड और क्रोधाग्नि से उद्दीप्त हो गया । कोपाधिक्य से उसके ललाट पर तीन रेखाएं उभर आई । उसकी भृकुटि तन गई । वह बोला-'अप्रार्थित-मृत्यु को चाहने वाला, दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षण वाला, पुण्य चतुर्दशी जिस दिन हीन-थी, उस अशुभ दिन में जन्मा हुआ, लज्जा तथा श्री-शोभा से परिवर्जित वह कौन अभागा है, जिसने उत्कृष्ट देवानुभाव से लब्ध प्राप्त स्वायत्त मेरी ऐसी दिव्य देवऋद्धि, देवधुति पर प्रहार करते हुए मौत से न डरते हुए मेरे भवन में बाण गिराया है ?' वह अपने सिंहासन से उठा और उस बाण को उठाया, नामांकन देखा । देखकर उसके मन में ऐसा चिन्तन, विचार, मनोभाव तथा संकल्प उत्पन्न हुआ-'जम्बूद्वीप के अन्तर्वर्ती भरतक्षेत्र में भरत नामक चातुरन्त चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुआ है । अतः अतीत, प्रत्युत्पन्न तथा अनागत-मागधतीर्थ के अधिष्ठातृ देवकुमारों के लिए यह उचित है, परम्परागत व्यवहारानुरूप है कि वे राजा को उपहार भेंट करें । इसलिए मैं भी जाऊँ, राजा को उपहार भेंट करूं ।' यों विचार कर उसने हार, मुकुट, कुण्डल, कटक, कड़े, त्रुटित, वस्त्र, अन्यान्य विविध अलंकार, भरत के नाम से अंकित बाण और मागध तीर्थ
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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