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________________ १७६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद बीज (कर्म) को जला देनेवाले, योगेश्वर के आश्रय के योग्य और सभी जीव को स्मरण करने लायक सिद्ध मुजे शरणरूप हो । [२८] परम आनन्द पानेवाले, गुण के सागर समान, भव समान कंद का सर्वथा नाश करनेवाले, केवल ज्ञान के प्रकाश द्वारा सूर्य और चन्द्र को फीका कर देनेवाले और फिर राग द्वेष आदि द्वन्द्व को नाश करनेवाले सिद्ध मुजे शरणरूप हो । [२९] परम ब्रह्म (उत्कृष्ट ज्ञान) को पानेवाले, मोक्ष समान दुर्लभ लाभ को पानेवाले, अनेक प्रकार के समारम्भ से मुक्त, तीन भुवन समान घर को धारण करने में स्तम्भ समान, आरम्भ रहित सिद्ध मुजे शरणरूप हो । [३०] सिद्ध के शरण द्वारा नय (ज्ञान) और ब्रह्म के कारणभूत साधु के गुण में प्रकट होनेवाले अनुरागवाला भव्य प्राणी अपने अति प्रशस्त मस्तक को पृथ्वी पर रखकर इस तरह कहते है [३१] जीवलोक (छ जीवनिकाय) के बन्धु, कुगति समान समुद्र के पार को पानेवाले, महा भाग्यशाली और ज्ञानादिक द्वारा मोक्ष सुख को साधनेवाले साधु मुजे शरण हो । [३२] केवलीओ, परमावधिज्ञानवाले, विपुलमतिमनःपर्यवज्ञानी श्रुतधर और जिनमत के आचार्य और उपाध्याय ये सब साधु मुझे शरणरूप हो । [३३] चौदहपूर्वी, दसपूर्वी और नौपूर्वी और फिर जो बारह अंग धारण करनेवाले, ग्यारह अंग धारण करनेवाले, जिनकल्पी, यथालंदी और परिहारविशुद्धि चारित्रवाले साधु । [३४] क्षीराश्रवलब्धिवाले, मध्वाश्रवलब्धिवाले, संभिन्नश्रोतलब्धिवाले, कोष्ठबुद्धिवाले, चारणमुनि, वैक्रियलब्धिवाले और पदानुसारीलब्धिवाले साधु मुझे शरणरूप हो ।। _[३५] वैर-विरोध को त्याग करनेवाले, हमेशा अद्रोह वृत्तिवाले अति शान्त मुख की शोभावाले, गुण के समूह का बहुमान करनेवाले और मोह का घात करनेवाले साधु मुझे शरणरूप हो । [३६] स्नेह समान बँन्धन को तोड़ देनेवाले, निर्विकारी स्थान में रहनेवाले, विकाररहित सुख की इच्छा करनेवाले, सत्त्पुरुष के मन को आनन्द देनेवाले और आत्मा में रमण करनेवाले मुनि मुझे शरणरूप हो । [३७] विषय, कषाय को दूर करनेवाले, घर और स्त्री के संग के सुख का स्वाद का त्याग करनेवाले, हर्ष और शोक रहित और प्रमाद रहित साधु मुझे शरणरूप हो । [३८] हिंसादिक दोष रहित, करुणा भाववाले, स्वयंभुरमण समुद्र समान विशाल बुद्धिवाले. जरा और मृत्यु रहित मोक्ष मार्ग में जानेवाले और अति पुण्यशाली साधु मुझे शरण रूप हो । [३९] काम की विडम्बना से मुक्त, पापमल रहित, चोरी का त्याग करनेवाले, पाप रुप के कारणरूप मैथुन रहित और साधु के गुणरूप रत्न की कान्तिवाले मुनि मुझे शरणरूप हो । [४०] जिसके लिए साधुपन में अच्छी तरह से रहे हुए आचार्यादिक है उसके लिए वे भी साधु कहलाए जाते है । साधु कहते हुए उन्हें भी साधुपद में ग्रहण किए है; उसके लिए वे साधु मुझे शरण रूप हो । [४१] साधु का शरण स्वीकार करके, अति हर्ष से होनेवाले रोमांच के विस्तार द्वारा
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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