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________________ १६२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद और विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम भोजन से प्रतिलाभित करके कहेगी-'आर्याओ ! राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को भोगते हुए यावत् मैंने प्रतिवर्ष बालक-युगलों को जन्म देकर सोलह वर्ष में बत्तीस बालकों का प्रसव किया है । जिससे मैं उन दुर्जन्मा यावत् बच्चों के मलमूत्र-वमन आदि से सनी होने के कारण अत्यन्त दुर्गन्धित शरीरवाली हो राष्ट्रकूट के साथ भोगोपभोग नहीं भोग पाती हूँ । आर्याओ ! मैं आप से धर्म सुनना चाहती हूँ । तब वे आर्याएँ सोमा ब्राह्मणी को यावत् केवलिप्ररूपित धर्म का उपदेश सुनाएंगी । तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी उन आर्यिकाओं से धर्मश्रवण कर और उसे हृदय में धारण कर हर्षित और संतुष्ट-यावत् विकसितहृदयपूर्वक उन आर्याओ को वंदन-नमस्कार करेगी । और कहेगी मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ यावत् उसे अंगीकार करने के लिए उद्यत हूँ । निर्ग्रन्थप्रवचन इसी प्रकार का है यावत् जैसा आपने प्रतिपादन किया है । किन्तु मैं राष्ट्रकूट से पूलूंगी । तत्पश्चात् आप देवानुप्रिय के पास मुंडित होकर प्रव्रजित होऊंगी । देवानुप्रिय ! जैसे सुख हो वैसा करो, किन्तु विलम्ब मत करो । तत्पश्चात् वह सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूट के निकट जाकर दोनों हाथ जोड़ कहेगी-मैंने आर्याओ से धर्मश्रवण किया है और वह धर्म मुझे इच्छित है यावत् रुचिकर लगा है । इसलिए आपकी अनुमति लेकर मैं सुव्रता आर्या से प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ । तब राष्ट्रकूट कहेगा अभी तुम मुंडित होकर यावत् घर छोड़कर प्रव्रजित मत होओ किन्तु अभी तुम मेरे साथ विपुल कामभोगों का उपभोग करो और भुक्तभोगी होने के पश्चात् यावत् गृहत्याग कर प्रव्रजित होना । राष्ट्रकूट के इस सुझाव को मानने के पश्चात् सोमा ब्राह्मणी स्नान कर, कौतुक मंगल प्रायश्चित कर यावत् आभरणअलंकारों से अलंकृत होकर दासियों के समूह से घिरी हुई अपने घर से निकलेगी । बिभेल सन्निवेश के मध्यभाग को पार करती हुई सुव्रता आर्याओं के उपाश्रय में आएगी । आकर सुव्रता आर्याओं को वंदन-नमस्कार करके उनकी पर्युपासना करेगी । तत्पश्चात् वे सुव्रता आर्या उस सोमा ब्राह्मणी को 'कर्म से जीव बद्ध होते हैंइत्यादिरूप केवलिप्ररूपित धर्मोपदेश देंगी । तब वह सोमा ब्राह्मणी बारह प्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार करेगी और फिर सुव्रता आर्या को वंदन-नमस्कार करेगी । वापिस लौट जाएगी । तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका हो जाएगी । वह जीव-अजीव पदार्थों के स्वरूप की ज्ञाता, पुण्य-पाप के भेद की जानकार, आस्रव-संवर-निर्जरा-क्रिया-अधिकरण तथा बंध-मोक्ष के स्वरूप को समझने में निष्णात, परतीर्थियों के कुतर्कों का खण्डन करने में स्वयं समर्थ, होगी । देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किनर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग आदि देवता भी उसे निर्ग्रन्थप्रवचन से विचलित नहीं कर सगेंगे । निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करेगी । आत्मोत्थान के सिवाय अन्य कार्यों में उसकी अभिलाषा नहीं रहेगी । धार्मिक-आध्यात्मिक सिद्धान्तों के आशय के प्रति उसे संशय नहीं रहेगा । लब्धार्थ, गृहीतार्थ, विनिश्चितार्थ, होने से उसकी अस्थि और मज्जा तक धर्मानुराग से अनुरंजित हो जाएगी । इसीलिए वह दूसरों को संबोधित करते हुए उद्घोषणा करेगी-आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ है, परमार्थ है, इसके सिवाय अन्यतीर्थिकों का कथन कुगति-प्रापक होने से अनर्थ है । असद् विचारों से
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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