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________________ १५४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद इत्यादि यावत् उत्तर दिशा का अवलोकन किया आदि । इस चारों दिशाओं का वर्णन, आहार किया तक का वृत्तान्त पूर्ववत् जानना । इसके बाद किसी समय मध्यरात्रि में अनित्य जागरण करते हुए उन सोमिल ब्रह्मर्षि के मन में इस प्रकार का यह आन्तरिक विचार उत्पन्न हुआ-'मैं वाराणसी नगरी का रहने वाला, अत्यन्त उच्चकुल में उत्पन्न सोमिल ब्रह्मर्षि हूँ । मैंने गृहस्थाश्रम में रहते हुए व्रत पालन किए हैं, यावत् यूप-गड़वाए । इसके बाद आम के यावत् फूलों के बगीचे लगवाए । तत्पश्चात् प्रव्रजित हुआ । प्रव्रजित होने पर षष्ठ-षष्ठभक्त तपःकर्म अंगीकार करके दिक्चक्रवाल साधना करता हुआ विचरण कर रहा हूँ । लेकिन अब मुझे उचित है कि कल सूर्योदय होते ही बहुत से दृष्ट-भाषित, पूर्व संगतिक, और पर्यायसंगतिक, तापसों से पूछकर और आश्रमसंश्रित अनेक शत जनों को वचन आदि से संतुष्ट कर और उनसे अनुमति लेकर वल्कल वस्त्र पहनकर, कावड़ की छबड़ी में अपने भाण्डोपकरणों को लेकर तथा काष्ठमुद्रा से मुख को बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में महाप्रस्थान करूं ।' इस प्रकार विचार करने के पश्चात् कल यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर उन्होंने सभी दृष्ट, भाषित, पूर्वसंगतिक और तापस पर्याय के साथियों आदि से पछकर तथा आश्रमस्थ अनेक शत-प्राणियों को संतष्ट कर अंत में काष्ठमद्रा से मुख को बाँधा । इस प्रकार का अभिग्रह लिया-चाहे वह जल हो या स्थल, हो अथवा नीचा प्रदेश, पर्वत हो अथवा विषम भूमि, गड्डा हो या गुफा, इन सब में से जहाँ कहीं भी प्रस्खलित होऊँ या गिर जाऊं वहाँ से मुझे उठना नहीं कल्पता है । - तत्पश्चात् उत्तराभिमुख होकर महाप्रस्थान के लिए प्रस्थित वह सोमिल ब्रह्मर्षि उत्तर दिशा की ओर गमन करते हुए अपराह्न काल में जहां सुन्दर अशोक वृक्ष था, वहाँ आए । अपना कावड़ रखा । अनन्तर वेदिका साफ की, उसे लीप-पोत कर स्वच्छ किया, फिर डाभ सहित कलश को हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए और शिवराजर्षि के समान उस गंगा महानदी में स्नान आदि कृत्य कर वहाँ से बाहर आए । फिर शर और अरणि बनाई, अग्नि पैदा की इत्यादि । अग्नियज्ञ करके काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधकर मौन होकर बैठ गये। तदनन्तर मध्यरात्रि के समय सोमिल ब्रह्मर्षि के समक्ष एक देव प्रकट हुआ । उस देव ने सोमिल ब्रह्मर्षि से कहा-'प्रव्रजित सोमिल ब्राह्मण ! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है ।' उस देव ने दूसरी और तीसरी बार भी ऐसा ही कहा । किन्तु सोमिल ब्राह्मण ने उस देव की बात का आदर नहीं किया- यावत् मौन ही रहे । इसके बाद उस सोमिल ब्रह्मर्षि द्वारा अनादृत वह देव वापिस लौट गया । तत्पश्चात कल यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर वल्कल वस्त्रधारी सोमिल ने कावड़, भाण्डोपकरण आदि लेकर काष्ठमुद्रा से मुख को बांधा । बांधकर उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया । इसके बाद दूसरे दिन अपराह्न काल के अंतिम प्रहर में सोमिल ब्रह्मर्षि जहाँ सप्तपर्ण वृक्ष था, वहाँ आये । कावड़ को रखा वेदिका–को साफ किया, इत्यादि पूर्ववत् । तब मध्यरात्रि में सोमिल ब्रह्मर्षि के समक्ष पुनः देव प्रकट हुआ और आकाश में स्थित होकर पूर्ववत् कहा परन्तु सोमिल ने उस देव की बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया । यावत् वह देव
SR No.009787
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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