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जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति - ५ / २४३
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[२४३] पूजोपचार करता है । गुलाब, मल्लिका, आदि सुगन्धयुक्त फूलों को कोमलता से हाथ में लेता है । वे सहज रूप में उसकी हथेलियों से गिरते हैं, उन पँचरंगे पुष्पों का घुटनेघुटने जितना ऊँचा एक विचित्र ढेर लग जाता है । चन्द्रकान्त आदि रत्न, हीरे तथा नीलम से बने उज्ज्वल दंडयुक्त, स्वर्ण मणि एवं रत्नों से चित्रांकित, काले अगर, उत्तम कुन्दरुक्क, लोबान एवं धूप से निकलती श्रेष्ठ सुगन्ध से परिव्याप्त, धूम-श्रेणी छोड़ते हुए नीलम - निर्मित धूपदान को पकड़ कर सावधानी से, धूप देता है । जिनवरेन्द्र के सम्मुख सात-आठ कदम चलकर, हाथ जोड़कर जागरूक शुद्ध पाठयुक्त, एक सौ आठ स्तुति करता है । वैसा कर वह अपना बायां घुटना ऊँचा उठाता है, दाहिना घुटना भूमितल पर रखता है, हाथ जोड़ता है, कहता है - हे सिद्ध, बुद्ध, नीरज, श्रमण, समाहित, कृत-कृत्य ! समयोगिन् ! शल्य-कर्तन, निर्भय, नीरागदोष, निर्मम, निःशल्य, मान-मूरण, गुण-रत्न-शील-सागर, अनन्त, अप्रमेय, धर्मसाम्राज्य के भावी उत्तम चातुरन्त चक्रवर्ती धर्मचक्र के प्रवर्तक! अर्हत्, आपको नमस्कार हो । इन शब्दों में वह भगवान् को वन्दन करता है, नमन करता है । पर्युपासना करता है ।
अच्युतेन्द्र की ज्यों प्राणतेन्द्र यावत् ईशानेन्द्र, भवनपति, वानव्यन्तर एवं ज्योतिष्केन्द्र सभी इसी प्रकार अपने-अपने देव-परिवार सहित अभिषेक - कृत्य करते हैं । देवेन्द्र, देवराज ईशान पांच ईशानेन्द्रों की विकुर्वणा करता है - एक ईशानेन्द्र तीर्थंकर को उठाकर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठता है । एक छत्र धारण करता है । दो ईशानेन्द्र चँवर डुलाते हैं । एक ईशानेन्द्र हाथ में त्रिशूल लिये आगे खड़ा रहता है । तब देवेन्द्र देवराज शक्र अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है । अच्युतेन्द्र की ज्यों अभिषेक सामग्री लाने की आज्ञा देता है । फिर देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् तीर्थंकर की चारों दिशाओं में शंख के चूर्ण की ज्यों विमल, गहरे जमे हुए, दधि-पिण्ड, गो- दुग्ध के झाग एवं चन्द्र- ज्योत्स्ना की ज्यों सफेद, चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप, प्रतिरूप, वृषभों की विकुर्वणा करता है । उन चारों बैलों के आठ सींगों में से आठ जलधाराएँ निकलती हैं, तीर्थंकर के मस्तक पर निपतित होती हैं । अपने ८४००० सामानिक आदि देव परिवार से परिवृत देवेन्द्र, देवराज शक्र तीर्थंकर का अभिषेक करता है ! वन्दन नमन करता है, पर्युपासना करता है ।
[२४४] तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र पाँच शक्रों की विकुर्वणा करता है । यावत् एक शक्रवज्र हाथ में लिये आगे खड़ा होता है । फिर शक्र अपने ८४००० सामानिक देवों, भवनपति यावत् वैमानिक देवों, देवियों से परिवृत, सब प्रकार की ऋद्धि से युक्त, वाद्य-ध्वनि के बीच उत्कृष्ट त्वरित दिव्य गति द्वारा, जहाँ भगवान् तीर्थंकर का जन्म भवन था वहाँ आता है । तीर्थंकर को उनकी माता की बगल में स्थापित करता है । तीर्थंकर के प्रतिरूपक को, प्रतिसंहृत करता है । भगवान् तीर्थंकर की माता की अवस्वापिनी निद्रा को, जिसमें वह सोई होती है, प्रतिसंहृत कर लेता है । भगवान् तीर्थंकर के उच्छीर्षक मूल में - दो बड़े वस्त्र तथा दो कुण्डल रखता है । तपनीय - स्वर्ण-निर्मित झुम्बनक, सोने के पातों से परिमण्डित, नाना प्रकार की मणियों तथा रत्नों से बने तरह-तरह के हारों, अर्धहारों, से उपशोभित श्रीदामगण्ड भगवान् के ऊपर तनी चाँदनी में लटकाता है, जिसे भगवान् तीर्थंकर निर्निमेष दृष्टि से उसे देखते हुए सुखपूर्वक अभिरमण करते हैं ।
तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र वैश्रमण देव को बुलाकर कहता है- शीघ्र ही ३२-३२