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प्रज्ञापना-१८/-/४७४
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भगवन् ! सेन्द्रिय-अपर्याप्तक कितने काल तक सेन्द्रिय-अपर्याप्तरूप में रहता है ? गौतम ! जघन्यः और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहर्त तक । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक तक में समझना । भगवन् ! सेन्द्रिय-पर्याप्तक, सेन्द्रिय-पर्याप्तरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट शतपृथक्त्वसागरोपम से कुछ अधिक । एकेन्द्रियपर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक एकेन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात वर्षों तक, त्रीन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन, चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात मास तक और पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट सौ पृथक्त्व सागरोपमों काल तक रहता है ।
[४७५] भगवन् ! सकायिक जीव सकायिकरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! सकायिक दो प्रकार के हैं । अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल पृथ्वीकायिक पर्याययुक्त रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक; असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्णियों तक, क्षेत्र से असंख्यात लोक तक। इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक भी जानना । वनस्पतिकायिक जीव वनस्पतिकायिक पर्याय में जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक रहते हैं । कालत:अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी परिमित एवं क्षेत्रतः अनन्त लोक प्रमाण या असंख्यात पुद्गलपरावर्त समझना । वे पुद्गलपरावर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग-प्रमाण हैं । त्रसकायिक जीव त्रसकायिकरूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम तक रहता है । अकायिक सादि-अनन्त होता है ।।
भगवन् ! सकायिक अपर्याप्तक कितने काल तक सकायिक अपर्याप्तक रूप में रहता है । गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक इसी प्रकार त्रसकायिक अपर्याप्तक तक समझना । सकायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सौ सागरोपमपृथक्त्व तक रहता है । पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक पृथ्वीकायिक पर्याप्तकरूप में रहता है । इसी प्रकार अप्कायिक पर्याप्तक में भी समझना । तेजस्कायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन रहता है । वायुकायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक रहता है । वनस्पतिकायिक पर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक रहता है । त्रसकायिकपर्याप्तक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम-पृथक्त्व तक पर्याप्त त्रसकायिक रूप में रहता है ।
[४७६] भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म रूप में रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यातकाल, कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों
और क्षेत्रतः असंख्यातलोक तक । इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, यावत् सूक्ष्मवनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्म निगोद भी समझ लेना । सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक रूप में जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त रहता है । (सूक्ष्म) पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक में भी इसी प्रकार समझना । पर्याप्तकों में भी ऐसा ही समझना ।