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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
पुद्गलगति है । मेंढ़क जो उछल उछल कर गति करता है, वह मण्डूकगति कहलाती है । जैसे नौका पूर्व वैताली से दक्षिण वैताली की ओर जलमार्ग से जाती है, अथवा दक्षिण वैताली से अपर वैताली की ओर जलपथ से जाती है, ऐसी गति नौकागति है । नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत, इन सात नयों की जो प्रवृत्ति है, वह नयगति है । अश्व, हाथी, मनुष्य, किन्नर, महोरग, गन्धर्व, वृषभ, रथ और छत्र की छाया का आश्रय करके जो गमन होता है, वह छायागति है । छाया पुरुष आदि अपने निमित्त का अनुगमन करती है, किन्तु पुरुष छाया का अनुगमन नहीं करता, वह छायानुपातगति है । कृष्णलेश्या (के द्रव्य) नीललेश्या (के द्रव्य) को प्राप्त होकर उसी के वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्शरूप में बारबार जो परिणत होती है, इसी प्रकार नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर, कापोतलेश्या तेजोलेश्या को, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को तथा पद्मलेश्या शुक्ललेश्या की प्राप्त होकर जो उसी के वर्ण यावत् स्पर्शरूप में परिणत होती है, वह लेश्यागति है । जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके (जीव ) काल करता है, उसी लेश्यावाले में उत्पन्न होता है । जैसे - कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले द्रव्यों में । यह लेश्यानुपातगति है ।
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उद्देश्यप्रविभक्तगत क्या है ? आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्त्तक, गणि, गणधर अथवा गणावच्छेदक को लक्ष्य करके जो गमन किया जाता है, वह उद्दिश्यप्रविभक्तगति है । चतुः पुरुषप्रविभक्तगति किसे कहते हैं ? जैसे- १. किन्हीं चार पुरुषों का एक साथ प्रस्थान हुआ और एक ही साथ पहुँचे, २. एक साथ प्रस्थान हुआ, किन्तु एक साथ नहीं पहुँचे, ३. एक साथ प्रस्थान नहीं हुआ, किन्तु पहुँचे एक साथ, तथा ४. प्रस्थान एक साथ नहीं और एक साथ भी नहीं पहुँचे, यह चतुः पुरुषप्रविभक्तगति है । वक्रगति चार प्रकार की है । घट्टन से, स्तम्भन से, श्लेषण से और प्रपतन से । जैसे कोई पुरुष कादे में, कीचड़ में अथवा जल में (अपने शरीर को दूसरे के साथ जोड़कर गमन करता है, ( उसकी ) यह (गति) पंकगति है । वह बन्धनविमोचनगति क्या है ? अत्यन्त पक कर तैयार हुए, अतएव बन्धन से विमुक्त आम्रों, आम्रातकों, बिजौरों, बिल्वफलों, कवीठों, भद्र फलों, कटहलों, दाड़िमों, पारेवत फल, अखरोटों, चोर फलों, बोरों अथवा तिन्दुकफलों की रुकावट न हो तो स्वभाव से ही जो अधोगति होती है, वह बन्धनविमोचनगति है ।
हुआ
पद - १६ - का मुनिदीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण । पद - १७ - " लेश्या"
उद्देशक- 9
[४४२] समाहार, सम-शरीर और सम उच्छ्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, समवेदना, समक्रिया तथा समायुष्क, यह सात द्वार इस उद्देशक में है ।
[४४३] भगवन् ! क्या सभी नारक समान आहार, समान शरीर तथा समान उच्छ्वासनिःश्वास वाले होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकी- - नारक दो प्रकार के हैं, - महाशरीरवाले और अल्पशरीर वाले । जो महाशरीर वाले होते हैं, वे बहुत अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं, परिणत करते हैं, उच्छ्वास लेते हैं और से पुद्गलों का निःश्वास छोड़ते हैं । वे बार-बार आहार करते हैं, परिणत करते हैं, उच्छ्वसन और निःश्वनस करते हैं । जो