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सूर्यप्रज्ञप्ति-२०/-/१९८
पुष्पकेतु और भावके ।
[१९९ से २०७] यह संग्रहणी गाथाएं है । इन गाथाओ में पूर्वोक्त अठ्ठासी महाग्रहो के नाम - अंगारक यावत् पुष्पकेतु तक बताये है । इसीलिए इन गाथाओ के अर्थ प्रगट न करके हमने पुनरुक्तिका त्याग किया है ।
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प्राभृत- २० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण [२०८] यह पूर्वकथित प्रकार से प्रकृतार्थ ऐसे एवं अभव्यजनो के हृदय से दुर्लभ ऐसी भगवती ज्योतिषराज प्रज्ञप्ति का किर्तन किया है ।
[२०९] इसको ग्रहण करके जड-गौरवयुक्त मानी - प्रत्यनीक - अबहुश्रुत को यह प्रज्ञप्ति का ज्ञान देना नहीं चाहिए, इससे विपरीतजनो को यथा-सरल यावत् श्रुतवान् को देना चाहिए। [२१०] श्रध्धा धृति-धैर्य - उत्साह - उत्थान -बल-वीर्य-पराक्रम से युक्त होकर इसकी शीक्षा प्राप्त करनेवाले भी अयोग्य हो तो उनको इस प्रज्ञप्ति की प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए । यथा[२११] जो प्रवचन, कुल, गण या संघ से बाहर निकाले गए हो, ज्ञान-विनय से हीन हो, अरिहंत - गणधर और स्थवीर की मर्यादा से रहित हो- (ऐसे को यह प्रज्ञप्ति नहीं देना 1) [२१२] धैर्य - उत्थान उत्साह - कर्म-बल-वीर्य से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । इनको नियम से आत्मा में धारण करना । अविनीत को कभी ये ज्ञान मत देना ।
[२१३] जन्म-मृत्यु- क्लेश दोष से रहित भगवंत महावीर के सुख देनेवाले चरण कमल में विनय से नम्र हुआ मैं वन्दना करता हुं ।
[२१४] ये संग्रहणी गाथाएँ है ।
१६ सूर्यप्रज्ञप्ति - उपांगसूत्र- ५ हिन्दी अनुवाद पूर्ण