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सूर्यप्रज्ञप्ति-१०/२२/९६
१७५ से योग करता है, वही चंद्र १०९८०० मुहूर्त ग्रहण करके पुनः वही चन्द्र उसी नक्षत्र से योग करता है ।
विवक्षित दिवस में सूर्य जिस मंडलप्रदेश में जिस नक्षत्र से योग करता है, वही सूर्य ३६६ अहोरात्र ग्रहण करके पुनः वही सूर्य अन्य सदृश नक्षत्र से उसी प्रदेश में योग करता है । विवक्षित दिवस में जिस नक्षत्र के साथ जिस मंडल प्रदेश में योग करता है, वही सूर्य ७३२ रात्रिदिनो को ग्रहण करके पुनः उसी नक्षत्र से योग करता है । इसी प्रकार १८३० अहोरात्र में वही सूर्य उसी प्रदेशमंडल में अन्य सदृश नक्षत्र से योग करता है और ३६६० अहोरात्र वहीं सूर्य पुनः उसी पूर्वनक्षत्र से योग करता है ।
[९७] जिस समय यह चंद्र गति समापन्न होता है, उस समय अन्य चंद्र भी गति समापन्न होता है; जब अन्य चंद्र गति समापन्न होता है उस समय यह चंद्र भी गति समापन्न होता है । इसी तरह सूर्य के ग्रह के और नक्षत्र के सम्बन्ध में भी जानना । जिस समय यह चंद्र योगयुक्त होता है, उस समय अन्य चंद्र भी योगयुक्त होता है और जिस समय अन्य चंद्र योगयुक्त होता है उस समय यह चंद्र भी योगयुक्त होता है । इस तरह सूर्य के, ग्रहके और नक्षत्र के विषय में भी समझलेना । चन्द्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्र सदा योगयुक्त ही होते है । प्राभृत-१०-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(प्राभृत-११) [९८] हे भगवन् ! संवत्सरका प्रारंभ किस प्रकार से कहा है ? निश्चय से पांच संवत्सर कहे है-चांद्र, चांद्र, अभिवर्धित, चांद्र और अभिवर्धित । इसमें जो पांचवें संवत्सर का पर्यवसान है वह अनन्तर पुरस्कृत समय यह प्रथम संवत्सर की आदि है, द्वितीय संवत्सर की जो आदि है वहीं अनन्तर पश्चात्कृत् प्रथम संवत्सर का समाप्ति काल है । उस समय चंद्र उत्तराषाढा नक्षत्र के छब्बीस मुहूर्त एवं एक मुहूर्त के छब्बीस बासठ्ठांश भाग तथा बासठवें भाग को सडसठ से विभक्त करके चोप्पन चूर्णिका भाग शेष रहने पर योग करके परिसमाप्त करता है । और सूर्य पुनर्वसू नक्षत्र से सोलह मुहूर्त एवं एक मुहूर्त के आठ बासठ्ठांश भाग तथा बांसठवे भाग को सडसठ से विभक्त करके बीस चूर्णिका भाग शेष रहने पर योग करके प्रथम संवत्सर को समाप्त करते है ।
इसी तरह प्रथम संवत्सर का पर्यवसान है वह दुसरे संवत्सर की आदि है, दुसरे का पर्यवसान वह तीसरे संवत्सर की आदि है, तीसरे का पर्यवसान वह चौथे संवत्सर की आदि है, चौथे का पर्यवसान, वह पांचवे संवत्सर की आदि है । तीसरे संवत्सर के प्रारंभ का अनन्तर पश्चात्कृत् समय दुसरे संवत्सर की समाप्ति है...यावत्...प्रथम संवत्सर की आदि का अनन्तर पश्चात्कृत् समय पांचवे संवत्सर की समाप्ति है ।
दुसरे संवत्सर की परिसमाप्ति में चन्द्र पूर्वाषाढा नक्षत्र से योग करता है, तीसरे में उत्तराषाढा से, चौथे में उत्तराषाढा और पांचवे संवत्सर की समाप्ति में भी चन्द्र उत्तराषाढा नक्षत्र से योग करता है और सूर्य दुसरे से चौथे संवत्सर की समाप्ति में पुनर्वसू से तथा पांचवे संवत्सर की समाप्ति में पुष्य नक्षत्र से योग करता है