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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
योजन एवं एक योजन का १८७वां भाग क्षेत्र को एक एक अहोरात्र में विकम्पन करके सूर्य गति करता है ।
भगवंत फरमाते है कि दो योजन तथा एक योजन के अडचत्तालीस एकसठ्ठांश भाग एक एक मंडल क्षेत्र का एक एक अहोसत्र में विकम्पन करके सूर्य गति करता है । यह जम्बूद्वीप सर्वद्वीप समुद्रो से घीरा हुआ है, उसमें जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल को उपसंक्रमण करके गति करता है उस समय परमप्रकर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठ्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्या बारह मुहूर्त की रात्री होती है । निष्क्रमण करता हुआ सूर्य नए संवत्सर का आरंभ करते हुए सर्वाभ्यन्तर मंडल के अनन्तर ऐसे पहेले बाह्य मंडल में उपसंक्रमण से गति करता है, तब दो योजन और एक योजन के अडचत्तालीस एकसठ्ठांश भाग को एक अहोरात्र में विकम्पन करके गति करता हैं, उस समय दो एकसठ्ठांश मुहूर्त की दिन में वृद्धि और रात्रि में हानि होती है। वह सूर्य दुसरी अहोरात्रि में तीसरे मंडल में उपसंक्रमण करके गति करता है तब दो अहोरात्र में पांच योजन के पैंतीश एकसठ्ठांश भाग से विकम्पन करके गमन करता है, उस समय चार एकसठ्ठांश भाग मुहूर्त की दिन में हानि और रात्रि में वृद्धि होती है । इस प्रकार से निष्क्रमीत सूर्य अनन्तर-अनन्तर मंडल में गति करता हुआ संक्रमण करता है, तब एक अहोरात्र में दो योजन एवं एक योजन के अडचतालीश एकसट्ठांश भाग विकम्पन करता हुआ सर्वबाह्य मंडल में पहुंचता है | १८३ अहोरात्र में वह सूर्य ११५ योजन विकम्पन करके गति करता है । सर्व बाह्य मंडल में पहुंचता है तब परमप्रकर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठ्ठारह मुहूर्त की रात्रि और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । यह हुए प्रथम छ मास और छ मास का पर्यवसान ।
दुसरे छह मास में वह सर्वबाह्य मंडल से सर्वाभ्यन्तर मंडल में प्रवेश करता है | प्रथम अहोरात्र में अनन्तर प्रथम मंडल में प्रविष्ट होते हुए वह दो योजन और एक योजन का अडचत्तालीश एकसठ्ठांश भाग क्षेत्र को विकम्पन करके गति करता है तब दो एकसठ्ठांश मुहूर्त की दिन में वृद्धि और रात्रि में हानि होती है । इसी प्रकार से पूर्वोक्त कथनानुसार सर्वबाह्य मंडल की अवधि करके १८३ रात्रिदिन में वह सर्वाभ्यन्तर मंडल में संक्रमण करके पहुंचता है, तब उत्कृष्ट अठारह मुहर्त का दिन और जघन्या बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । यह दुसरे छ मास हुए और ये हुआ दुसरे छ मास का पर्यवसान । यह है आदित्य संवत्सर ।
| प्राभृत-१-प्राभृतप्राभृत-७ | [२९] हे भगवन् ! मंडलो की संस्थिति क्या है ? मंडल संस्थिति सम्बन्ध में आठ प्रतिपत्तियां है । कोई एक कहता है कि सर्व मंडल की संस्थिति समचतुरस्र है । कोइ इसे विषम चतुरस्र संस्थानवाली बताते है । कोइ समचतुष्कोण की तो कोइ चौथा उसे विषम चतुष्कोण की कहते है । कोई पांचवा उसे समचक्रवाल बताता है तो कोइ विपमचक्रवाल संस्थित कहते है । सातवां अर्धचक्रवाल संस्थित कहता है तो आठवां मतवादी उसे छत्राकार बताते है । इन सब में जो मंडल की संस्थिति को छत्राकार बताते है वह मेरे मत से तुल्य है । यह कथन पूर्वोक्त नयरूप उपाय से ठीक तरह समझ लेना ।
| प्राभृत-१-प्राभृतप्राभृत-८ [३०] हे भगवन् सर्व मंडलपद कितने बाहल्य से, कितने आयाम विष्कंभ से तथा