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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
दिन की हानि और रात्रि की वृद्धि होती है, उस समय उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि और बारह मुहूर्त का दिन होता है । इस तरह यह पहले छ मास पूर्ण होते है ।
पहले छ मास पूर्ण होते ही सूर्य सर्व बाह्यमंडल से सर्वाभ्यन्तर मंडल की ओर गमन करता है । जब वह अनन्तर पहले अभ्यन्तर मंडल में संक्रमण करता है, तब दो एकसठ्ठांश मुहूर्त रात्रि की हानि होती है और दिन में वृद्धि होती है । इसी तरह इसी अनुक्रम से दो एकसठ्ठांस मुहूर्त रात्रि की हानि और दिन की वृद्धि होते होते जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल में प्रविष्ट करके संक्रमण करता है, तब उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । यह सूर्य पूर्वोक्त रीतिसे १८३ दिन तक अभ्यन्तरमंडल की तरफ गमन करता है, इस तरह दुसरे छ मास पूर्ण होते है । इसी तरह दो छ मास का एक आदित्य संवत्सर होता है । उसमें एक ही बार अठारह मुहूर्त का दिन और बारह मुहूर्त की रात्रि होती है तथा एक ही बार अठ्ठारह मुहर्त की रात्रि और बारह मुहर्त का दिन होता है । पन्द्रह मुहूर्त का दिन और पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि नहीं होती । अनुपात गति से यह हो शकता है ।
प्राभृत-१-प्राभृतप्राभृत-२ [२२] अर्द्धमंडल संस्थिति-व्यवस्था कैसे होती है ? दो प्रकार से अर्द्ध मंडल संस्थिति मैने कही है - दक्षिण दिग्भावि और उत्तरदिग्भावि । हे भगवन् ! यह दक्षिण दिग्भावि अर्धमंडल संस्थिति क्या है ? जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल से संक्रमण करके दक्षिण अर्द्धमंडल संस्थिति में गति करता है, तब उत्कृष्ट अट्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्या बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । निष्क्रमण करता हुआ वह सूर्य, नए संवत्सर को प्राप्त करके प्रथम अहोरात्र में दक्षिण के अनन्तर पश्चात् भाग से उसके आदि प्रदेश में अर्द्धमंडल संस्थिति प्राप्त करके गति करता है। तब दो एकसठ्ठांश मुहूर्त प्रमाण दिन की हानि और रात्रि की वृद्धि होती है । जब वह दुसरे मंडल से निकलकर दक्षिण दिशा के तीसरे मंडल में गति करता है तब चार एकसठ्ठांश मुहूर्त की दिन में हानी और रात्रि में वृद्धि होती है । निश्चय से इस अनुक्रम से इसी तरह दक्षिण की तरफ एक एक अनन्तर अभ्यन्तर मंडल में संक्रमण करता हआ सूर्य सर्व बाह्यमंडल संस्थिति को प्राप्त करता है । उस समय उत्कृष्ट अठ्ठारह मुहूर्त की रात्रि और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । इस तरह पहले छ मास में दक्षिण दिग्भाववर्ती अर्धमंडल संस्थिती होती है।
जब दुसरे छ मास का आरंभ होता है तब वहीं सूर्य सर्व बाह्यउत्तरार्ध मंडल के आदि प्रदेश से क्रमशः सर्व बाह्य अनन्तर दुसरे दक्षिणार्द्ध मंडलाभिमुख संक्रमण करके जब वह
अहोरात्र समाप्त होता है तब वह दक्षिण अर्द्धमंडल संस्थिति का संक्रमण करके गति करता है। उस समय रात्रि में दो एकसठ्ठांश भाग की हानि और दिन में उतनी ही वृद्धि होती है। इसी क्रम से पूर्वोक्त पद्धति से संक्रमण करता हुआ सूर्य उत्तर की तरफ संक्रमण करते हुए सर्वाभ्यन्तर मंडल में गति करता है तब उत्कृष्ट अठ्ठारह मुहूर्त का दिन और जघन्य बारह मुहुर्त की रात्रि होती है । इस तरह दुसरे छ मास पूर्ण होते है । यहीं आदित्य संवत्सर है और यहीं आदित्य संवत्सर का पर्यवसान है ।
[२३] हे भगवन् ! उत्तरदिग्वर्ती अर्द्धमंडल संस्थिति कैसी है ? यह बताईए ।