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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है । हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत है और वर्ण, रस, गन्ध, और स्पर्शपर्यायों से अशाश्वत है । इसलिए हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि पद्मवरवेदिका कथिञ्चत् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है । हे भगवन् ! पद्मववेदिका काल की अपेक्षा कब तक रहने वाली है ? गौतम ! वह 'कभी नहीं थी' - ऐसा नहीं है 'कभी नहीं है' ऐसा नहीं है, 'कबी नहीं रहेगी' ऐसा नहीं है । वह थी, है और सदा रहेगी । वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है ।
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[१६४] उस जगती के ऊपर और पद्मवरवेदिका के बाहर एक बड़ा विशाल वनखण्ड है । वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोल विस्तार वाला है और उसकी परिधि जगती की परिधि के समान ही है । वह वनखण्ड काला है और काला ही दिखाई देता है । यावत् उस वनखण्ड के वृक्षों के मूल बहुत दूर तक जमीन के भीतर गहरे गये हुए हैं, वे प्रशस्त किशलय वाले, प्रशस्त पत्रवाले और प्रशस्त फूल फल और बीजवा | वे सब पादप समस्त दिशाओं में और विदिशाओं में अपनी-अपनी शाखा प्रशाखाओं द्वारा इस ढंग से फैले हुए हैं कि वे गोल-गोल प्रतीत होते हैं । वे मूलादि क्रम से सुन्दर, सुजात और रुचिर प्रतीत होते हैं । ये वृक्ष एक-एक स्कन्ध वाले । इनका गोल स्कन्ध इतना विशाल है कि अनेक पुरुष भी अपनी फैलायी हुई बाहुओं में उसे ग्रहण नहीं कर सकते । इन वृक्षों के पत्ते छिद्ररहित हैं, अविरल हैं- इनके पत्ते वायु से नीचे नहीं गिरते हैं, इनके पत्तों में रोग नहीं होता । इन वृक्षों के जो पत्ते पुराने पड़ जाते हैं या सफेद हो जाते हैं वे हवा से गिरा दिये जाते हैं और अन्यत्र डाल दिये जाते हैं । नये और हरे दीप्तिमान पत्तों के झुरमुट से होनेवाले अन्धकार के कारण इनका मध्यभाग दिखाई न पड़ने से ये रमणीय दर्शनीय लगते हैं । इनके अग्रशिखर निरन्तर निकलने वाले पल्लवों और कोमल उज्ज्वल तथा कम्पित किशलयों से सुशोभित हैं । ये वृक्ष सदा कुसुमित रहते हैं, नित्य मुकुलित रहते हैं, नित्य पल्लवित रहते हैं, नित्य स्तबकित रहते हैं, नित्य गुल्मित रहते हैं, नित्य गुच्छित रहते हैं, नित्य यमलित रहते हैं, नित्य युगलित रहते हैं, नित्य विनमित रहते हैं, एवं नित्य प्रणमित रहते हैं । इस प्रकार नित्य कुसुमित यावत् नित्य प्रमित बने हुए ये वृक्ष सुविभक्त प्रतिमंजरी रूप अवतंसक को धारण किये रहते हैं ।
इन वृक्षों के ऊपर शुक के जोड़े, मयूरों के जोड़े, मैना के जोड़े, कोकिल के जोड़े, चक्रवाक के जोड़े, कलहंस के जोड़े, सारस के जोड़े इत्यादि अनेक पक्षियों के जोड़े बैठे-बैठे बहुत दूर तक सुने जाने वाले उन्नत शब्दों को करते रहते हैं - इससे इन वृक्षों की सुन्दरता में विशेषता आ जाती है । मधु का संचय करने वाले उन्मत्त भ्रमरों और भ्रमरियों का समुदाय उन पर मंडराता रहता है । अन्य स्थानों से आ-आकर मधुपान से उन्मत्त भंवरे पुष्पराग के पान में मस्त बनकर मधुर-मधुर गुंजारव से इन वृक्षों को गुंजाते रहते हैं । इन वृक्षों के पुष्प और फल इन्हीं के भीतर छिपे रहते हैं । वृक्ष बाहर से पत्रों और पुष्पों से आच्छादित रहते हैं । ये वृक्ष सब प्रकार के रोगों से रहित हैं, कांटों से रहित हैं । इनके फल स्वादिष्ट होते हैं और स्निग्धस्पर्श वाले होते हैं । ये वृक्ष प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से गुल्मों से लतामण्डपों से सुशोभित हैं । इन पर अनेक प्रकार की ध्वजाएँ फहराती रहती हैं । इन वृक्षों को सींचने के लिए चौकोर वावडियों में, गोल पुष्करिणियों में, लम्बी दीर्घिकाओं में सुन्दर