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प्रज्ञापना-२/-/२२८
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भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त लान्तक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाने पर, लान्तक कल्प है, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् विशेष यह कि (इस कल्प में) ५०,००० विमानावास हैं, पांचवां लान्तक अवतंसक है । शेष पूर्ववत् । इस लान्तक अवतंसक में देवेन्द्र देवराज लान्तक निवास करता है, शेष पूर्ववत् । विशेष यह है कि (लान्तकेन्द्र) ५०,००० विमानावासों का, ५०,००० सामानिकों का, दो लाख आत्मरक्षक देवों का, तथा अन्य बहुत-से लान्तक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् 'विचरण करता है ।
- भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक महाशुक्र देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! लान्तककल्प के ऊपर समान दिशा में यावत् ऊपर जाने पर, महाशुक्र कल्प है, शेष वर्णन पूर्ववत् । विशेष इतना कि ४०,००० विमानावास है । (पांचवां) महाशुक्रावतंसक है, यावत् 'विचरण करते हैं । इस महाशुक्रावतंसक में देवेन्द्र देवराज महाशुक्र रहता है, वर्णन पूर्ववत्। विशेष यह कि (वह महाशुक्रेन्द्र) ४०,००० विमानावासों का, ४०,००० सामानिकों का, और १,६०,००० आत्मरक्षक देवों का अधिपतित्व करता हुआ...यावत् 'विचरण करता है ।
भगवन् ! पर्याप्त और पर्याप्त सहस्रार देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! महाशुक्र कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा से यावत् ऊपर दूर जाने पर, वहाँ सहस्रार कल्प है, समस्त वर्णन पूर्ववत् । विशेष यह कि (इस सहस्रार कल्प में) ६००० विमानावास (पांचवां) 'सहस्रारावतंसक' समझना । यावत् 'विचरण करते हैं । इसी स्थान पर देवेन्द्र देवराज सहस्रार निवास करता है । (वर्णन पूर्ववत्) विशेष यह है कि (सहस्रारेन्द्र) ६००० विमानावासों का, ३०,००० सामानिक देवों का और १,२०,००० आत्मरक्षक देवों का यावत् आधिपत्य करता हुआ विचरण करता है ।।
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक आनत एवं प्राणत देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! सहस्रार कल्प के ऊपर समान दिशा और विदिशा में, यावत् ऊपर दूर जा कर, यहाँ आनत एवं प्राणत नाम के दो कल्प हैं; जो पूर्व-पश्चिम में लम्बे और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण, अर्द्धचन्द्र के आकार में संस्थित, ज्योतिमाला और दीप्तिराशि की प्रभा के समान हैं, शेष सब वर्णन पूर्ववत् । उन कल्पों में आनत और प्राणत देवों के ४०० विमानावास है; पूर्ववत् । विशेष यह कि इन में (पांचवां) प्राणतावतंसक है । वे अवतंसक पूर्णरूप से रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् 'प्रतिरूप हैं' । इन (अवतंसकों) में पर्याप्त-अपर्याप्त आनत-प्राणत देवों के स्थान हैं । ये स्थान तीनों अपेक्षाओं से, लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ बहुत-से आनतप्राणत देव निवास करते हैं, जो महर्द्धिक हैं, यावत् वे (आनत-प्राणत देव) वहाँ अपने-अपने सैकड़ों विमानों का यावत् आधिपत्य करते हुए विचरते हैं । यहीं देवेन्द्र देवराज प्राणत निवास करता है, वर्णन पूर्ववत् । विशेष यह कि (यह प्राणतेन्द्र) चार सौ विमानावासों का, २०,००० सामानिक देवों का तथा ८०,००० आत्मरक्षकदेवों का एवं अन्य बहुत-से देवों का अधिपतित्व करता हुआ यावत् 'विचरण करता है ।
भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक आरण और अच्युत देवों के स्थान कहाँ हैं ?