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प्रज्ञापना- २ /-/ २२६
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चिकने, कोमल, घिसे हुए, रजरहित, निर्मल, पंकरहित, निरावरण कान्तिवाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतसहित, प्रासादीय, दर्शनीय, रमणीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । इन्हीं में पर्याप्तक और अपर्याप्त वैमानिक देवों के स्थान हैं । (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । उनमें बहुत-से वैमानिक देव निवास करते हैं । वे सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रैवेयक एवं अनुत्तररौपपातिक देव है । वे मृग, महिष, वराह, सिंह, बकरा, दर्दुर, हय, गजराज, भुजंग, खङ्ग, वृषभ और विडिम के प्रकट चिह्न से युक्त मुकुट वाले, शिथिल और श्रेष्ठ मुकुट और किरीट के धारक, श्रेष्ठ कुण्डलों से उद्योतित मुखवाले, शोभायुक्त, रक्त आभायुक्त, कमल के पत्र के समान गरे, श्वेत, सुखद वर्ण, गन्ध रस और स्पर्शवाले, उत्तम विक्रियाशक्तिधारी, प्रवर वस्त्र, गन्ध, माल्य और अनुलेपन के धारक महर्द्धिक यावत् ( पूर्ववत्) विचरण करते हैं।
[२२७] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मकल्पगत देवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत के दक्षिण में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर यावत् ऊपर दूर जाने पर सौधर्म नामक कल्प है । वह पूर्व - पश्चिम लम्बा, उत्तर दक्षिण विस्तीर्ण, अर्द्धचन्द्र आकार में संस्थित, अर्चियों की माला तथा दीप्तियों की राशि के समान कान्ति वाला है । उसकी लम्बाई और चौड़ाई तथा परिधि भी असंख्यात कोटाकोटि योजन की है । वह सर्वरत्नमय है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् । उसमें सौधर्मदेवों के बत्तीसलाख विमानावास है । विमान वर्णन पूर्ववत् । इन विमानों के बिलकुल मध्यदेशभाग में पांच अवतंसक हैं । अशोकावतंसक, सप्तवर्णावतंसक, चंपकावतंसक, चूतावतंसक और इन चारों के मध्य में पांचवां सौधर्मावतंसक । इन्हीं में पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मक देवों के स्थान हैं । उनमें बहुत से सौधर्मक देव निवास करते हैं, जो कि 'महर्द्धिक हैं' (इत्यादि) वे वहाँ अपने-अपने लाखों विमानों का यावत् बहुत-से सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य, इत्यादि यावत् विचरण करते हैं ।
इन्हीं में देवेन्द्र देवराज शक्र निवास करता है; जो वज्रपाणि पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्द्धलोकाधिपति, बत्तीसलाख विमानों का अधिपति है । ऐरावत हाथी जिसका वाहन है, जो सुरेन्द्र है, रजरहित स्वच्छ वस्त्र का धारक है, संयुक्त माला और मुकुट पहनता है तथा जिसके कपोलस्थल नवीन स्वर्णमय, सुन्दर, विचित्र एवं चंचल कुण्डलों से विलिखित होते हैं । वह महर्द्धिक है, इत्यादि पूर्ववत् । वह वहां बत्तीस लाख विमानावासों का, चौरासी हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिंशक देवों का, चार लोकपालों का, आठ सपरिवार अग्रमहिषियों का तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, ३,३६,००० आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य एवं अग्रेसरत्व करता हुआ, यावत् 'विचरण करता है' ।
[२२८] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त ईशानक देवों के स्थान कहाँ हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप में सुमेरुपर्वत के उत्तर में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम और रमणीय भूभाग से ऊपर, यावत् दूर जाकर ईशान नामक कल्प कहा गया है, शेष वर्णन सौधर्म के समान समझना । उस में ईशान देवों के २८ लाख विमानावास हैं । वे विमान सर्वरत्नमय यावत्