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प्रज्ञापना-१/-/१६१
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प्रकार के हैं ? अनेक प्रकार के । सिंह, व्याघ्र, द्वीपिक, रीछ, तरक्ष, पाराशर, श्रृगाल, विडाल, श्वान, कोलश्वान, कोकन्तिक, शशक, चीता और चित्तलग । इसी प्रकार के अन्य प्राणी को सनखपदों समझो । चतुष्पद-स्थलचर० संक्षेप में दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम और गर्भज। जो सम्मूर्छिम हैं, वे सब नपुंसक हैं । जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के हैं । स्त्री, पुरुष और नपुंसक । इस प्रकार इन स्थलचर-पंचेन्द्रिय० के दस लाख जाति-कुल-कोटियोनिप्रमुख होते हैं ।
[१६२ वे परिसर्प-स्थलचर० दो प्रकार के हैं । उरःपरिसर्प० एवं भुजपरिसर्प-स्थलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक । उरःपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक किस प्रकार के हैं ? चार प्रकार के । अहि, अजगर, आसालिक और महोग । वे अहि किस प्रकार के होते हैं ? दो प्रकार के । दर्वीकर और मुकुली । वे दर्वीकर सर्प किस प्रकार के होते हैं ? अनेक प्रकार के हैं । वे इस प्रकार हैं-आशीविष (दाढ़ों में विषवाले), दृष्टिविष (दृष्टि में विषवाले), उग्रविष (तीव्र विषवाले), भोगविष (फन या शरीर में विषवाले), त्वचाविष (चमड़ी में विषवाले), लालाविष (लार में विषवाले), उच्छ्वासविष (श्वास लेने में विषवाले), निःश्वासविष (श्वास छोड़ने में विषवाले), कृष्णसर्प, श्वेतसर्प, काकोदर, दह्यपुष्प (दर्भपुष्प), कोलाह, मेलिभिन्द
और शेषेन्द्र । इसी प्रकार के और भी जितने सर्प हों, वे सब दर्वीकर के अन्तर्गत समझना चाहिए । यह हुई दर्वीकर सर्प की प्ररूपणा ।
वे मुकुली सर्प कैसे होते हैं ? अनेक प्रकार के । दिव्याक, गोनस, कषाधिक, व्यतिकुल, चित्रली, मण्डली, माली, अहि, अहिशलाका और वातपताका । अन्य जितने भी इसी प्रकार के सर्प हैं, (वे सब मुकुली सर्प समझना ।) वे अजगर किस प्रकार के हैं ? एक ही आकार के । आसालिक किस प्रकार के होते हैं ? भगवन् ! आसालिक कहाँ सम्मूर्च्छित होते हैं ? गौतम ! वे मनुष्य क्षेत्र के अन्दर ढाई द्वीपों में, निर्व्याघातरूप से पन्द्रह कर्मभूमियों में, व्याघात की अपेक्षा से पांच महाविदेह क्षेत्रों में, अथवा चक्रवर्ती, वासुदेवों, बलदेवों, माण्डलिकों, और महामाण्डलिकों के स्कन्धावारों में, ग्राम, नगर, निगम, निवेशों में, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टण, आकार, आश्रम, सम्बाध और राजधानीनिवेशों में । इन सबका विनाश होनेवाला हो तब इन स्थानों में आसालिक सम्मूर्छिमरूप से उत्पन्न होते हैं। वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग-मात्र और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना से (उत्पन्न होते हैं ।) उस के अनुरूप ही उसका विष्कम्भ और बाहल्य होता है । वह (आसालिक) चक्रवर्ती के स्कन्धावर आदि के नीचे की भूमि को फाड़ कर प्रादुर्भूत होता है । वह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है, तथा अन्तर्मुहर्तकाल की आयु भोग कर मर जाता है ।
महोरग किस प्रकार के होते हैं ? अनेक प्रकार के । कई-कई महोरग एक अंगुल के, अंगुलपृथक्त्व, वितस्ति, वितस्तिपृथक्त्व, एक रत्नि, रत्निपृथक्त्व, कुक्षिप्रमाण, कुक्षिपृथक्त्व, धनुष, धनुषपृथक्त्व, गव्यूति, गव्यूतिपृथक्त्व, योजनप्रमाण, योजन पृथक्त्व, सौ योजन, योजनशतपृथक्त्व, और कोई हजार योजन के भी होते हैं । वे स्थल में उत्पन्न होते हैं, किन्तु जल में विचरण करते हैं; स्थल में भी विचरते हैं । वे मनुष्यक्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं । इसी प्रकार के अन्य जो भी उरःपरिसर्प हों, उन्हें भी महोरगजाति के समझना । वे उरःपरिसर्प स्थलचर संक्षेप में दो प्रकार के हैं-सम्मूर्छिम और गर्भज । इनमें से जो सम्मूर्छिम