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________________ १२४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद देना चाहिए । [२८०] जिन द्वीपों और समुद्रों में नक्षत्र, ग्रह एवं तारा का प्रमाण जानने की इच्छा हो तो उन द्वीपों और समुद्रों के चन्द्र सूर्यों के साथ-एक-एक चन्द्र-सूर्य परिवार से गुणा करना चाहिए । । [२८१] मनुष्यक्षेत्र के बाहर जो चन्द्र और सूर्य हैं, उनका अन्तर पचास-पचास हजार योजन का है । यह अन्तर चन्द्र से सूर्य का और सूर्य से चन्द्र का जानना । [२८२] सूर्य से सूर्य का और चन्द्र से चन्द्र का अन्तर मानुषोत्तरपर्वत के बाहर एक लाख योजन का है । [२८३] (मनुष्यलोक से बाहर अवस्थित) सूर्यान्तरित चन्द्र और चन्द्रान्तरित सूर्य अपने अपने तेजःपुंज से प्रकाशित होते हैं । इनका अन्तर और प्रकाशरूप लेश्या विचित्र प्रकार की है। [२८४] एक चन्द्रमा के परिवार में ८८ ग्रह और २८ नक्षत्र होते हैं । ताराओं का प्रमाण आगे की गाथाओं में कहते हैं । [२८५] एक चन्द्र के परिवार में ६६९७५ कोडाकोडी तारे हैं । [२८६] मनुष्यक्षेत्र के बाहर के चन्द्र और सूर्य अवस्थित योग वाले हैं । चन्द्र अभिजित्नक्षत्र से और सूर्य पुष्यनक्षत्र से युक्त रहते हैं । [२८७] हे भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत की ऊँचाई कितनी है ? उसकी जमीन में गहराई कितनी है ? इत्यादि प्रश्न । गौतम ! मानुषोत्तरपर्वत १७२१ योजन पृथ्वी से ऊँचा है । ४३० योजन और एक कोस पृथ्वी में गहरा है । यह मूल में १०२२ योजन चौड़ा है, मध्य में ७२३ योजन चौड़ा और ऊपर ४२४ योजन चौड़ा है । पृथ्वी के भीतर की इसकी परिधि १,४२,३०,२४९ योजन है । बाह्यभाग में नीचे की परिधि १,४२,३६,७१४ योजन है । मध्य में १,४२,३४,८२३ योजन की है । ऊपर की परिधि १,४२,३२,९३२ योजन की है । यह पर्वत मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतला है । यह भीतर से चिकना है, मध्य में प्रधान और बाहर से दर्शनीय है । यह पर्वत जैसे सिंह अपने आगे के दोनों पैरों को लम्बा करके पीछे के दोनों पैरों को सिकोड़कर बैठता है, उस रीति से बैठा हुआ है । यह पर्वत आधे यव की राशि के आकार का । यह पर्वत पूर्णरूप से जांबूनदमय है, आकाश और स्फटिकमणि की तरह निर्मल है, चिकना है यावत् प्रतिरूप है । इसके दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाएं और दो वनखण्ड इसे सब ओर से घेरे हुए स्थित हैं ।। हे भगवन् ! यह मानुषोत्तरपर्वत क्यों कहलाता है ? गौतम ! मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर-अन्दर मनुष्य रहते हैं, इसके ऊपर सुपर्णकुमार देव रहते हैं और इससे बाहर देव रहते हैं । इस पर्वत के बाहर मनुष्य न तो कभी गये हैं, न कभी जाते हैं और न कभी जाएंगे, केवल जंघाचारण और विद्याचारण मुनि तथा देवों द्वारा संहरण किये मनुष्य ही इस पर्वत से बाहर जा सकते हैं । इसलिए, अथवा हे गौतम ! यह नाम शाश्वत है । जहां तक यह मानुषोत्तरपर्वत है वहीं तक यह मनुष्य-लोक है । जहां तक भरतादि क्षेत्र और वर्षधर पर्वत हैं, जहां तक घर या दुकान आदि हैं, जहां तक ग्राम यावत् राजधानी है, जहां तक अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, जंघाचारण मुनि, विद्याचारण मुनि, श्रमण, श्रमणियां,
SR No.009785
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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