SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नव्याकरण-२/६/३४ ९३ से सेवन की गई है । ऋजुमति मनः पर्यवज्ञानियों द्वारा देखी-परखी गई है । विपुलमति- मनःपर्यायज्ञानियों द्वारा ज्ञात की गई है । चतुर्दश पूर्वश्रुत के धारक मुनियों ने इसका अध्ययन किया है । विक्रियालब्धि के धारकों ने इसका आजीवन पालन किया है । मतिज्ञानियों, श्रुतज्ञानियों, अवधिज्ञानियों, मनः पर्यवज्ञानियों, केवलज्ञानियों ने, आमर्षौषधिलब्धि धारक, श्लेष्मौपधिलब्धिधारक, जल्लोषधिलब्धिधारकों, विप्रुडौषधिलब्धिधारकों, सर्वोषधिलब्धिप्राप्त, बीजबुद्धि - कोष्ठबुद्धि - पदानुसारिबुद्धि - लब्धिधारकों, संभिन्न श्रोतस्लब्धि धारकों, श्रुतधरों, मनोबली, वचनबली और कायबली मुनियों, ज्ञानबली, दर्शनबली तथा चारित्रबली महापुरुषों ने, मध्वास्रवलब्धिधारी, सर्पिरास्रवलब्धिधारी तथा अक्षीणमहानसलिब्ध के धारकों ने चारणों और विद्याधरों ने, चतुर्थभक्तिकों से लेकर दो, तीन, चार, पाँच दिनों, इसी प्रकार एक मास, दो मास, तीन मास, चार मास, पाँच मास एवं छह मास तक का अनशन - उपवास करनेवाले तपस्वियों ने, इसी प्रकार उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक, अन्तचरक, प्रान्तचरक, रूक्षचरक, समुदानचरक, अन्नग्लायक, मौनचरक, संसृष्टकल्पिक, तज्जातसंसृष्टकल्पिक, उपनिधिक, शुद्धैषणिक, संख्यादत्तिक, दृष्टलाभिक, अदृष्टलाभिक, पृष्ठलाभिक, आचाम्लक, पुरिमार्धिक, एकाशनिक, निर्विकृतिक, भिन्नपिण्डपातिक, परिमितपिण्डपातिक, अन्ताहारी, प्रान्ताहारी, अरसाहारी, विरसाहारी, रूक्षाहारी तुच्छाहारी, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी, रूक्षजीवी, तुच्छजीवी, उपशान्तजीवी, प्रशान्तजीवी, विविक्तजीवी तथा दूध, मधु और धृत का यावज्जीवन त्याग करने वालों ने, मद्य और मांस से रहित आहार करने वालों ने कायोत्सर्ग करके एक स्थान पर स्थित रहने का अभिग्रह करनेवालों ने, प्रतिमास्थायिकों ने स्थानोत्कटिकों ने, वीरासनिकों ने, नैषधिकों ने, दण्डायतिकों ने, लगण्डशायिकों ने, एकपार्श्वकों ने, आतापकों ने, अपाव्रतों ने, अनिष्ठीवकों ने, अकंडूयकों ने, धूतकेश श्मश्रु लोम-नख अर्थात् सिर के बाल, दाढी, मूंछ और नखों का संस्कार करने का त्याग करनेवालों ने, सम्पूर्ण शरीर के प्रक्षालन आदि संस्कार के त्यागियों ने, श्रुतधरों के द्वारा तत्त्वार्थ को अवगत करनेवाली बुद्धिधारक महापुरुषों ने सम्यक् प्रकार से आचरण किया है । इनके अतिरिक्त आशीविष सर्प के समान उग्र तेज से सम्पन्न महापुरुषों ने, वस्तु तत्त्व का निश्चय और पुरुषार्थ-दोनों में पूर्ण कार्य करनेवाली बुद्धि से सम्पन्न प्रज्ञापुरुषों ने, नित्य स्वाध्याय और चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यान करनेवाले तथा धर्मध्यान में निरन्तर चिन्ता को लगाये रखनेवाले पुरुषों ने, पाँच महाव्रतस्वरूप चारित्र से युक्त तथा पाँच समितियों से सम्पन्न, पापों का शमन करनेवाले, षट् जीवनिकायरूप जगत् के वत्सल, निरन्तर अप्रमादी रह कर विचरण करनेवाले महात्माओं ने तथा अन्य विवेकविभूषित सत्पुरुषों ने अहिंसा भगवती की आराधना की है । अहिंसा का पालन करने के लिए उद्यत साधु को पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रस, इस प्रकार सभी प्राणियों के प्रति संयमरूप दया के लिए शुद्ध भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए । जो आहार साधु के लिए नहीं बनाया गया हो, दूसरे से नहीं बनवाया गया हो, जो अनाहूत हो, अनुद्दिष्ट हो, साधु के उद्देश्य से खरीदा नहीं गया हो, जो नव कोटियों से विशुद्ध हो, शंकित, उद्गम, उत्पादना और एषणा दोषों से रहित हो, जिस देय वस्तु में से आगन्तुक जीव-जन्तु स्वतः पृथक् हो गए हों, वनस्पतिकायिक आदि जीव स्वतः या परतः मृत हो गए हों या दाता द्वारा दूर करा दिए गए हों, इस प्रकार जो भिक्षा
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy