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________________ प्रश्नव्याकरण- १/४/१७ असुरों सहित समस्त लोक द्वारा प्रार्थनीय है । यह प्राणियों को फँसाने वाले कीचड़ के समान है । संसार के प्राणियों को बांधने के लिए पाश और फँसाने के लिए जाल सदृश है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद इसका चिह्न है । यह अब्रह्मचर्य तपश्चर्या, संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघातक है । सदाचार सम्यक्चारित्र के विनाशक प्रमाद का मूल है । कायरों और कापुरुषों द्वारा इसका सेवन किया जाता है । यह सुजनों द्वारा वर्जनीय है । ऊर्ध्वलोक अधोलोक एवं तिर्यक्लोक में, इसकी अवस्थिति है । जरा, मरण, रोग और शोक की बहुलता वाला है । वध, बन्ध और विघात कर देने पर भी इसका विघात नहीं होता । यह दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का मूल कारण है । चिरकाल से परिचित है और सदा से अनुगत है । यह दुरन्त है, ऐसा यह अधर्मद्वार है । ८१ [१८] उस पूर्व प्ररूपित अब्रह्मचर्य के गुणनिष्पन्न अर्थात् सार्थक तीस नाम हैं । अब्रह्म, मैथुन, चरंत, संसर्गि, सेवनाधिकार, संकल्पी, बाधनापद, दर्प, मूढता, मनः संक्षोभ, अनिग्रह, विग्रह, विघात, विभंग, विभ्रम, अधर्म, अशीलता, ग्रामधर्मतप्ति, गति, रागचिन्ता, कामभोगमार, वैर, रहस्य, गुह्य, बहुमान, ब्रह्मचर्यविघ्न, व्यापत्ति, विराधना, प्रसंग और कामगुण । [१९] उस अब्रह्म नामक पापास्रव को अप्सराओं के साथ सुरगण सेवन करते हैं । कौन-से देव सेवन करते हैं ? जिनकी मति मोह के उदय से मूढ बन गई है तथा असुरकुमार, भुजगकुमार, गरुडकुमार, विद्यत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, पवनकुमार तथा स्तनितकुमार, ये भवनवासी, अणपन्निक, पणपण्णिक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड और पतंग देव, पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व । ये व्यन्तर देव, इनके अतिरिक्त तिछें- लोक में ज्योतिष्क देव, मनुष्यगण तथा जलचर, स्थलचर एवं खेचर अब्रह्म का सेवन करते हैं । जिनका चित्त मोह ग्रस्त है, जिनकी प्राप्त कायभोग संबंधी तृष्णा अतृप्त है । जो अप्राप्त कामभोगों के लिए तृष्णातुर हैं, जो महती तृष्णा से बुरी तरह अभिभूत हैं, जो विषयों में गृद्ध एवं मूर्च्छित हैं, उससे होने वाले दुष्परिणामों का भान नहीं है, जो अब्रह्म के कीचड़ में फँसे हुए हैं और जो तामसभाव से मुक्त नहीं हुए हैं, ऐसे अन्योन्य नर-नारी के रूप में अब्रह्म का सेवन करते हुए अपनी आत्मा को दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्म के पिंजरे में डालते हैं । पुनः असुरों, सुरों, तिर्यंचों और मनुष्यों सम्बन्धी भोगों में रतिपूर्वक विहार में प्रवृत्त, सुरेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा सत्कृत, देवलोक में देवेन्द्र सरीखे, भरत क्षेत्र में सहस्रों पर्वतों, नगरों, निगमों, जनपदों, पुरवरों, द्रोणमुखों, खेटों, कर्बटों, छावनियों, पत्तनों से सुशोभित, सुरक्षित, स्थिर लोगों के निवासवाली, एकच्छत्र, एवं समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का उपभोग करके चक्रवर्तीनरसिंह हैं, नरपति हैं, नरेन्द्र हैं, नर-वृषभ हैं स्वीकार किये उत्तरदायित्व को निभाने में समर्थ हैं, जो मरुभूमि के वृषभ के समान, अत्यधिक राज-तेज रूपी लक्ष्मी से देदीप्यमान हैं, जो सौम्य एवं निरोग हैं, राजवंशों में तिलक के समान हैं, जो सूर्य, चन्द्रमा, शंख, चक्र, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कच्छप, उत्तम, रथ, भग, भवन, विमान, अश्व, तोरण, नगरद्वार, मणि, रत्न, नंद्यावर्त्त, मूसल, हल, सुन्दर कल्पवृक्ष, सिंह, भद्रासन, सुरुचि, स्तूप, सुन्दर मुकुट, मुक्तावली हार, कुंडल, हाथी, उत्तम बैल, द्वीप, मेरुपर्वत, गरुड़, ध्वजा, इन्द्रकेतु, अष्टापद, धनुष, बाण, नक्षत्र, मेघ, मेखला, वीणा, गाड़ी का जुआ, छत्र, माला, दामिनी, कमण्डलु, 6 6
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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