SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नव्याकरण-१/१/८ से और विष से आघात पहुँचना, गर्दन-एवं सींगों का मोड़ा जाना, मारा जाना, गल-काँटे में या जाल में फँसा कर जल से बाहर निकालना, पकाना, काटा जाना, जीवन पर्यन्त बन्धन में रहना, पींजरे में बन्द रहना, अपने समूह-से पृथक् किया जाना, भैंस आदि को फूंका लगाना, गले में डंडा बाँध देना, घेर कर रखना, कीचड़-भरे पानी में डुबोना, जल में घुसेड़ना, गड्डेमें गिरने से अंग-भंग हो जाना, पहाड़ के विषम-मार्ग में गिर पड़ना, दावानल की ज्वालाओंमें जलना, आदि-आदि कष्टों से परिपूर्ण तिर्यंचगति में हिंसाकारी पापी नरक से निकल कर उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार वे हिंसा का पाप करने वाले पापी जीव सैकड़ों पीड़ाओं से पीड़ित होकर, नरकगति से आए हुए, प्रमाद, राग और द्वेष के कारण बहुत संचित किए और भोगने से शेष रहे कर्मों के उदयवाले अत्यन्त कर्कश असाता को उत्पन्न करने वाले कर्मों से उत्पन्न दुःखों के भजन बनते हैं । भ्रमर, मच्छर, मक्खी आदि पर्यायों में, उनकी नौ लाख जाति-कुलकोटियों में वारंवार जन्म-मरण का अनुभव करते हुए, नारकों के समान तीव्र दुःख भोगते हुए स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु से युक्त होकर वे पापी जीव संख्यात काल तक भ्रमण करते रहते हैं । इसी प्रकार कुंथु, पिपीलिका, अंधिका आदि त्रीन्द्रिय जीवों की पूरी आठ लाख कुलकोटियों में जन्म-मरण का अनुभव करते हुए संख्यात काल तक नारकों के सदृश तीव्र दुःख भोगते हैं । ये त्रीन्द्रिय जीव स्पर्शन, रसना और घ्राण-से युक्त होते हैं | गंडूलक, जलौक, कृमि, चन्दनक आदि द्वीन्द्रिय जीव पूरी सात लाख कुलकोटियों में से वहीं-वहीं जन्म-मरण की वेदना का अनुभव करते हुए संख्यात हजार वर्षों तक भ्रमण करते रहते हैं । वहाँ भी उन्हें नारकों के समान तीव्र दुःख भुगतने पड़ते हैं । ये द्वीन्द्रिय जीव स्पर्शन और रसना वाले होते हैं । एकेन्द्रिय अवस्था को प्राप्त हुए पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दो-दो भेद हैं-सूक्ष्म और बादर, या पर्याप्तक और अपर्याप्तक । वनस्पतिकाय में इन भेदों के अतिरिक्त दो भेद और भी हैं-प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी । इन भेदों में से प्रत्येकशरीर पर्याय में उत्पन्न होने वाले पापी-जीव असंख्यात काल तक उन्हीं उन्हीं पर्यायों में परिभ्रमण करते रहते हैं और अनन्तकाय में अनन्त काल तक पुनः पुनः जन्म-मरण करते हुए भ्रमण किया करते हैं । ये सभी जीव एक स्पर्शनेन्द्रिय वाले होते हैं । इनके दुःख अतीव अनिष्ट होते हैं | वनस्पतिकाय रूप एकेन्द्रिय पर्याय में कायस्थिति सबसे अधिक अनन्तकाल की है । कुदाल और हल से पृथ्वी का विदारण किया जाना, जल का मथा जाना और निरोध किया जाना, अग्नि तथा वायु का विविध प्रकार के शस्से घट्टन होना, पारस्परिक आघातों से आहत होना, मारना, दूसरों के निष्प्रयोजन अथवा प्रयोजन वाले व्यापार से उत्पन्न होने वाली विराधना की व्यथा सहन करना, खोदना, छानना, मोड़ना, सड़ जाना, स्वयं टूट जाना, मसलना-कुचलना, छेदन करना, छीलना, रोमों का उखाड़ना, पत्ते आदि तोड़ना, अग्नि से जलाना, इस प्रकार भवपरम्परा में अनुबद्ध हिंसाकारी पापी जीव भयंकर संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं । जो अधन्य जीव नरक से निकल कर किसी भाँति मनुष्य-पर्याय में उत्पन्न होते हैं, किन्तु जिनके पापकर्म भोगने से शेष रह जाते हैं, वे भी प्रायः विकृत एवं विकल-रूप-स्वरूप वाले, कुबड़े, वामन, बधिर, काने, टूटे हाथ वाले, लँगड़े, अंगहीन, गूंगे, मम्मण, अंधे, खराब 165
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy