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आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद
अथवा चतुरिन्द्रिय प्राणी अनेकानेक प्रकार के हैं । इन सभी प्राणियों को जीवित रहना प्रिय है । मरण का दुःख अप्रिय है । फिर भी अत्यन्त संक्लिष्टकर्मा - पापी पुरुष इन बेचारे दीनही प्राणियों का वध करते हैं । चमड़ा, चर्बी, मांस, मेद, रक्त, यकृत, फेफड़ा, भेजा, हृदय, आंत, पित्ताशय, फोफस, दांत, अस्थि, मज्जा, नाखून, नेत्र, कान, स्नायु, नाक, धमनी, सींग, दाद, पिच्छ, विष, विषाण और बालों के लिए (हिंसक प्राणी जीवों की हिंसा करते हैं) रसासक्त मनुष्य मधु के लिए - मधुमक्खियों का हनन करते हैं, शारीरिक सुख या दुःखनिवारण करने के लिए खटमल आदि त्रीन्द्रियों का वध करते हैं, वस्त्रों के लिए अनेक द्वीन्द्रिय कीड़ों आदि का घात करते हैं ।
अन्य अनेकानेक प्रयोजनों से त्रस - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-जीवों का घात करते हैं तथा बहुत-से एकेन्द्रिय जीवों का उनके आश्रय से रहे हुए अन्य सूक्ष्म शरीर वाले स जीवों का समारंभ करते हैं । ये प्राणी त्राणरहित हैं- अशरण हैं- अनाथ हैं, बान्धवों 1 रहित हैं और बेचारे अपने कृत कर्मों की बेड़ियों से जकड़े हुए हैं । जिनके परिणाम - अशुभ हैं, जो मन्दबुद्धि हैं, वे इन प्राणियों को नहीं जानते । वे अज्ञानी जन न पृथ्वीकाय को जानते हैं, न पृथ्वीकाय के आश्रित रहे अन्य स्थावरों एवं त्रस जीवों को जानते हैं । उन्हें जलकायिक तथा जल में रहने वाले अन्य जीवों का ज्ञान नहीं है । उन्हें अग्निकाय, वायुकाय, तृण तथा (अन्य ) वनस्पतिकाय के एवं इनके आधार पर रहे हुए अन्य जीवों का परिज्ञान नहीं है । ये प्राणी उन्हीं के स्वरूप वाले, उन्हीं के आधार से जीवित रहने वाले अथवा उन्हीं का आहार करने वाले हैं । उन जीवों का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शरीर अपने आश्रयभूत पृथ्वी, जल आदि सदृश होता है । उनमें से कई जीव नेत्रों से दिखाई नहीं देते हैं और कोई-कोई दिखाई देते हैं । ऐसे असंख्य त्रसकायिक जीवों की तथा अनन्त सूक्ष्म, बादर, प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर वाले स्थावरकाय के जीवों की जानबूझ कर या अनजाने इन कारणों से हिंसा करते हैं । वे कारण कौन-से हैं, जिनसे ( पृथ्वीकायिक) जीवों का वध किया जाता ? कृषि, पुष्करिणी, वावड़ी, क्यारी, कूप, सर, तालाब, भित्ति, वेदिका, खाई, आराम, विहार, स्तूप, प्राकार, द्वार, गोपुर, अटारी, चरिका, सेतु पुल, संक्रम, प्रासाद, विकल्प, भवन, गृह, झौंपड़ी, लयन, दूकान, चैत्य, देवकुल, चित्रसभा, प्याऊ, आयतन, देवस्थान, आवसथ, भूमिगृह और मंडप आदि के लिए तथा भाजन, भाण्ड, आदि एवं उपकरणों के लिए मन्दबुद्धि जन पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं ।
स्नान, पान, भोजन, वस्त्र धोना एवं शौच आदि की शुद्धि, इत्यादि कारणों से जलकायिक जीवों की हिंसा की जाती है । भोजनादि पकाने, पकवाने, जलाने तथा प्रकाश करने के लिए अग्निकाय के जीवों की हिंसा की जाती है । सूप, पंखा, ताड़ का पंखा, मयूरपंख, मुख, हथेलियों, सागवान आदि के पत्ते तथा वस्त्र-खण्ड आदि से वायुकाय के जीवों की हिंसा की जाती I
गृह, परिचार, भक्ष्य, भोजन, शयन, आसन, फलक, मूसल, ओखली, तत, वितत, आतोद्य, वहन, वाहन, मण्डप, अनेक प्रकार के भवन, तोरण, विडंग, देवकुल, झरोखा, अर्द्धचन्द्र, सोपान, द्वारशाखा, अटारी, वेदी, निःसरणी, द्रौणी, चंगेरी, खूंटी, खम्भा, सभागार,