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अन्तकृद्दशा-३/८/१३
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अनगार को अनंत अनुत्तर यावत् केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की उपलब्धि हुई । तत्पश्चात् आयुष्यपूर्ण हो जाने पर वे सिद्ध-कृतकृत्य, यावत् सर्व प्रकार के दुःखों से रहित हो गये । उस समय वहाँ समीपवर्ती देवों ने "अहो ! इन गजसुकुमाल मुनि ने श्रमणधर्म की अत्यन्त उत्कृष्ट आराधना की है" यह जान कर अपनी वैक्रिय शक्ति के द्वारा दिव्य सुगन्धित जल की तथा पांच वर्गों के दिव्य फूलों एवं वस्त्रों की वर्षा की और दिव्य मधुर गीतों तथा गन्धर्ववाद्ययन्त्रों की ध्वनि से आकाश को गंजा दिया ।
तदनन्तर कृष्ण वासुदेव दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर स्नान कर वस्त्रालंकारों से विभूषित हो, हाथी पर आरूढ हुए । कोरंट पुष्पों की माला वाला छत्र धारण किया हुआ था । श्वेत एवं उज्ज्वल चामर उनके दायें-बायें ढोरे जारहे थे । वे जहाँ भगवान् अरिष्टनेमि विराजमान थे, वहाँ के लिये खाना हुए । तब कृष्ण वासुदेव ने द्वारका नगरी के मध्य भाग से जाते समय एक पुरुष को देखा, जो अति वृद्ध, जरा से जर्जरित एवं थका हुआ था । वह बहुत दुःखी था । उसके घर के बाहर राजमार्ग पर ईंटों का एक विशाल ढेर पड़ा था जिसे वह वृद्ध एक-एक ईंट करके अपने घर में स्थानान्तरित कर रहा था । तब उन कृष्ण वासुदेव ने उस पुरुष की अनुकंपा के लिये हाथी पर बैठे हुए ही एक ईंट उठाई, उठाकर बाहर रास्ते से घर के भीतर पहुंचा दी । तब कृष्ण वासुदेव के द्वारा एक ईंट उठाने पर अनेक सैंकड़ों पुरुषों द्वारा वह बहुत बड़ा ईंटों का ढेर बाहर गली में से घर के भीतर पहुंचा दिया गया ।
वृद्ध पुरुष की सहायता करने के अनन्तर कृष्ण वासुदेव द्वारका नगरी के मध्य में से होते हुए जहाँ भगवन्त अरिष्टनेमि विराजमान थे वहां आ गए । यावत् वंदन-नमस्कार किया। बाद पूछा-"भगवन् ! मेरे सहोदर लघुभ्राता मुनि गजसुकुमाल कहां हैं ? मैं उनको वन्दनानमस्कार करना चाहता हूँ।" अरिहंत अरिष्टनेमि ने कहा-कृष्ण ! मुनि गजसुकुमाल ने मोक्ष प्राप्त करने का अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया है । कृष्ण वासुदेव अरिष्टनेमि भगवान् के चरणों में पुनः निवेदन करने लगे-भगवन् ! मुनि गजसुकुमाल ने अपना प्रयोजन कैसे सिद्ध कर लिया है ? “हे कृष्ण ! वस्तुतः कल के दिन के अपराह्न काल के पूर्व भाग में गजसुकुमाल मुनि ने मुझे वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया-हे प्रभो ! आपकी आज्ञा हो तो मैं महाकाल श्मशान में एक रात्रि की महाभिक्षुप्रतिमा धारण करके विचरना चाहता हूँ । यावत् भिक्षु की महाप्रतिमा धारण करके ध्यानस्थ खड़े हो गये । इसके बाद गजसुकुमाल मुनि को एक पुरुष ने देखा और देखकर वह उन पर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । इत्यादि, इस प्रकार गजसुकुमाल मुनि ने अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया ।
यह सुनकर कृष्ण वासुदेव भगवान् नेमिनाथ से इस प्रकार पूछने लगे-"भंते ! वह अप्रार्थनीय का प्रार्थी अर्थात् मृत्यु को चाहने वाला, यावत् निर्लज्ज पुरुष कौन है जिसने मेरे सहोदर लघु भ्राता गजसुकुमाल मुनि का असमय में ही प्राण-हरण कर लिया ?" तब अर्हत् अरिष्टनेमि कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार बोले-“हे कृष्ण ! तुम उस पुरुष पर द्वेष-रोष मत करो; क्योंकि उस पुरुष ने सुनिश्चित रूपेण गजसुकुमाल मुनि को अपना अपना प्रयोजन सिद्ध करने में सहायता प्रदान की है ।" यह सुनकर कृष्ण वासुदेव ने पुनः प्रश्न किया-'हे पूज्य ! उस पुरुष ने गजसुकुमाल मुनि को किस प्रकार सहायता दी ?' अर्हत् अरिष्टनेमि ने उत्तर दिया“कृष्ण ! मेरे चरणवंदन के हेतु शीघ्रतापूर्वक आते समय तुमने द्वारका नगरी में एक वृद्ध पुरुष