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राजप्रश्नीय ७०
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है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है किन्तु जीव और शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं । केश कुमारश्रमण ने कहा- प्रदेशी ! तुमने कभी धौंकनी में हवा भरी है ? प्रदेशीहाँ भदन्त ! हे प्रदेशी ! जब वायु से भर कर उस धौंकनी को तोला तब और वायु को निकाल कर तोला तब तुमको उसके वजन में कुछ न्यूनाधिकता यावत् लघुता मालूम हुई ? भदन्त ! यह अर्थ तो समर्थ नहीं है, तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! जीव के अगुरुलघुत्व को समझ कर उस चोर के शरीर के जीवितावस्था में किये गये तोल में और मृतावस्था में किये गये तोल में कुछ भी नानात्व यावत् लघुत्व नहीं है । इसीलिए हे प्रदेशी ! तुम यह श्रद्धा करो कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, किन्तु जीव- शरीर एक नहीं हैं ।
[७१] प्रदेशी राजा ने पुनः कहा- हे भदन्त ! आपकी यह उपमा बुद्धिप्रेरित होने से वास्तविक नहीं है । इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि जीव और शरीर पृथक्-पृथक् हैं । क्योंकि भदन्त ! बात यह है कि किसी समय मैं अपने गणनायकों आदि के साथ बाह्य उपस्थानशाला में बैठा था । यावत् नगररक्षक एक चोर पकड़ कर लाये । तब मैंने उस पुरुष को सब ओर से अच्छी तरह देखा, परन्तु उसमें मुझे कहीं भी जीव दिखाई नहीं दिया । इसके बाद मैंने उस पुरुष के दो टुकड़े कर दिये । टुकड़े करके फिर मैंने अच्छी तरह सभी ओर से देखा । तब भी मुझे जीव नहीं दिखा । इसके बाद मैंने उसके तीन, चार यावत् संख्यात टुकड़े किये, परन्तु उनमें भी मुझे कहीं पर जीव दिखाई नहीं दिया । यदि भदन्त ! मुझे टुकड़े करने पर भी कहीं जीव दिखता तो मैं यह श्रद्धा-विश्वास कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है, जीव और शरीर एक नहीं है । लेकिन हे भदन्त ! जब मैंने उस पुरुष के टुकड़ों में भी जीव नहीं देखा है तो मेरी यह धारणा कि जीव शरीर है और शरीर जीव है, जीव- शरीर भिन्न-भिन्न नहीं हैं, सुसंगत है ।
केश कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा- हे प्रदेशी ! तुम तो मुझे उस दीन-हीन कठियारे से भी अधिक मूढ प्रतीत होते हो । हे भदन्त ! कौनसा दीन-हीन कठियारा ? हे प्रदेशी ! वन में रहने वाले और वन से आजीविका कमाने वाले कुछ- एक पुरुष वनोत्पन्न वस्तुओं की खोज में आग और अंगीठी लेकर लकड़ियों के वन में प्रविष्ट हुए । पश्चात् उन पुरुषों ने दुर्गम वन के किसी प्रदेश में पहुँचने पर अपने एक साथी से कहा- देवानुप्रिय ! हम इस लकड़ियों के जंगल में जाते हैं । तुम यहाँ अंगीठी से आग लेकर हमारे लिये भोजन तैयार करना । यदि अंगीठी में आग बुझ जाये तो तुम इस लकड़ी से आग पैदा करके हमारे लिए भोजन बना लेना । उनके चले जाने पर कुछ समय पश्चात् उस पुरुष ने विचार किया- चलो उन लोगों के लिए जल्दी से भोजन बना लूँ । ऐसा विचार कर वह जहाँ अंगीठी रखी थी, वहाँ आकर अंगीठी में आग को बुझा हुआ देखा । तब वह पुरुष वहाँ पहुँचा जहाँ वह काष्ठ पड़ा हुआ था । वहाँ पहुँचकर चारों ओर से उसने काठ को अच्छी तरह देखा, किन्तु कहीं भी उसे आग दिखाई नहीं दी । तब उस पुरुष ने कमर कसी और कुल्हाड़ी लेकर उस काष्ठ
दो टुकड़े कर दिये । फिर उन टुकड़ों को भी सभी ओर से अच्छी तरह देखा, किन्तु कहीं आग दिखाई नहीं दी । इसी प्रकार फिर तीन, चार, पाँज यावत् संख्यात टुकड़े किये परन्तु देखने पर भी उनमें कहीं आग दिखाई नहीं दी ।
इसके बाद जब उस पुरुष को काष्ठ के दो से लेकर संखअयात टुकड़े करने पर भी कहीं आग दिखाई नहीं दी तो वह श्रान्त, क्लान्त, खिन्न और दुःखित हो, कुल्हाड़ी को एक ओर रख और कमर को खोलकर मन-ही-मन इस प्रकार बोला- अरे ! मैं उन लोकों के लिए