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राजप्रश्नीय-६७
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और शरीर भिन्न-भिन्न हैं, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं है ।
प्रदेशी राजा ने कहा-भदन्त ! यह आप द्वारा प्रयुक्त उपमा तो बुद्धिविशेष रूप है, इससे मेरे मन में जीव और शरीर की भिन्नता का विचार युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है । क्योंकि किसी समय मैं अपनी बाहरी उपस्थानशाला में गणनायक आदि के साथ बैठा था । तब मेरे नगररक्षकों ने साक्षी सहित यावत् एक चोर पुरुष को उपस्थित किया । मैंने उस पुरुष को प्राणरहित कर दिया और लोहकुंभी में डलवा दिया, ढक्कन से ढांक दिया यावत् अपने विश्वासपात्र पुरुषों को रक्षा के लिये नियुक्त कर दिया । बाद किसी दिन जहाँ वह कुंभी थी, मैं वहाँ आया । उस लोहकुंभी को उघाड़ा तो उसे कृमिकुल से व्याप्त देखा । लेकिन उस लोहकुंभी में न तो कोई छेद था, न कोई दरार थी कि जिसमें से वे जीव बाहर से उसमें प्रविष्ट हो सकें । यदि उस लोहकुंभी में कोई छेद होता यावत् दरार होती तो यह माना जा सकता था-वे जीव उसमें से होकर कुंभी में प्रविष्ट हुए हैं और तब मैं श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है । लेकिन जब उस लोहकुंभी में कोई छेद आदि नहीं थे, फिर भी उसमें जीव प्रविष्ट हो गये । अतः मेरी यह प्रतीति सुप्रतिष्ठित है कि जीव और शरीर एक ही हैं ।
केशी कुमारश्रमण ने कहा-हे प्रदेशी ! क्या तुमने पहले कभी अग्नि से तपाया हुआ लोहा देखा है ? हाँ भदन्त ! देखा है | तब हे प्रदेशी ! तपाये जाने पर वह लोहा पूर्णतया अग्नि रूप में परिणत हो जाता है या नहीं ? हाँ हो जाता है । हे प्रदेशी ! उस लोहे में कोई छिद्र आदि है क्या, जिससे वह अग्नि बाहर से उसके भीतर प्रविष्ट हो गई ? भदन्त ! यह अर्थ तो समर्थ नहीं है । तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! जीव भी अप्रतिहत गतिवाला है, जिससे वह पृथ्वी, शिला आदि का भेदन करके बाहर से भीतर प्रविष्ट हो जाता है । इसीलिए हे प्रदेशी! तुम इस बात की श्रद्धा करो कि जीव और शरीर भिन्न है ।
[६८] प्रदेशी राजा ने केशीकुमारश्रमण से कहा-बुद्धि-विशेषजन्य होने से आपकी उपमा वास्तविक नहीं है । किन्तु जो कारण मैं बता रहा हूँ, उससे जीव और शरीर की भिन्नता सिद्ध नहीं होती है । हे भदन्त ! जैसे कोई एक तरुण यावत् और अपना कार्य सिद्ध करने में निपुण पुरुष क्या एक साथ पांच वाणों को निकालने में समर्थ है ? केशी कुमारश्रमणहाँ वह समर्थ है । प्रदेशी-लेकिन वही पुरुष यदि बाल यावत् मंदविज्ञान वाला होते हुए भी पांच वाणों को एक साथ निकालने में समर्थ होता तो हे भदन्त ! मैं यह श्रद्धा कर सकता था कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, जीव शरीर नहीं है । लेकिन वही बाल, मंदविज्ञान वाला पुरुष पांच वाणों को एक साथ निकालने में समर्थ नहीं है, इसलिये भदन्त ! मेरी यह धारणा कि जीव और शरीर एक हैं, जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है, सुप्रतिष्ठित, सुसंगत है ।
केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-जैसे कोई एक तरुण यावत् कार्य करने में निपुण पुरुष नवीन धनुष, नई प्रत्यंचा और नवीन बाण से क्या एक साथ पांच वाण निकालने में समर्थ है ? प्रदेशी-हाँ समर्थ है । केशी कुमारश्रमण-लेकिन वही तरुण यावत् कार्य-कुशल पुरुष जीर्ण-शीर्ण, पुराने धनुष, जीर्ण प्रत्यंचा और वैसे ही जीर्ण बाण से क्या एक साथ पाँच बाणों को छोड़ने में समर्थ हो सकता है ? भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । केशी कुमारश्रमण-क्या कारण है कि जिससे यह अर्थ समर्थ नहीं है ? भदन्त ! उस पुरुष के पास उपकरण अपर्याप्त हैं । तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! वह बाल यावत् मंदविज्ञान पुरुष योग्यता रूप उपकरण की अपर्याप्तता के कारण एक साथ पांच वाणों को छोड़ने में समर्थ नहीं हो पाता