SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजप्रश्नीय-६७ २५९ और शरीर भिन्न-भिन्न हैं, जीव शरीर नहीं है और शरीर जीव नहीं है । प्रदेशी राजा ने कहा-भदन्त ! यह आप द्वारा प्रयुक्त उपमा तो बुद्धिविशेष रूप है, इससे मेरे मन में जीव और शरीर की भिन्नता का विचार युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता है । क्योंकि किसी समय मैं अपनी बाहरी उपस्थानशाला में गणनायक आदि के साथ बैठा था । तब मेरे नगररक्षकों ने साक्षी सहित यावत् एक चोर पुरुष को उपस्थित किया । मैंने उस पुरुष को प्राणरहित कर दिया और लोहकुंभी में डलवा दिया, ढक्कन से ढांक दिया यावत् अपने विश्वासपात्र पुरुषों को रक्षा के लिये नियुक्त कर दिया । बाद किसी दिन जहाँ वह कुंभी थी, मैं वहाँ आया । उस लोहकुंभी को उघाड़ा तो उसे कृमिकुल से व्याप्त देखा । लेकिन उस लोहकुंभी में न तो कोई छेद था, न कोई दरार थी कि जिसमें से वे जीव बाहर से उसमें प्रविष्ट हो सकें । यदि उस लोहकुंभी में कोई छेद होता यावत् दरार होती तो यह माना जा सकता था-वे जीव उसमें से होकर कुंभी में प्रविष्ट हुए हैं और तब मैं श्रद्धा कर लेता कि जीव अन्य है और शरीर अन्य है । लेकिन जब उस लोहकुंभी में कोई छेद आदि नहीं थे, फिर भी उसमें जीव प्रविष्ट हो गये । अतः मेरी यह प्रतीति सुप्रतिष्ठित है कि जीव और शरीर एक ही हैं । केशी कुमारश्रमण ने कहा-हे प्रदेशी ! क्या तुमने पहले कभी अग्नि से तपाया हुआ लोहा देखा है ? हाँ भदन्त ! देखा है | तब हे प्रदेशी ! तपाये जाने पर वह लोहा पूर्णतया अग्नि रूप में परिणत हो जाता है या नहीं ? हाँ हो जाता है । हे प्रदेशी ! उस लोहे में कोई छिद्र आदि है क्या, जिससे वह अग्नि बाहर से उसके भीतर प्रविष्ट हो गई ? भदन्त ! यह अर्थ तो समर्थ नहीं है । तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! जीव भी अप्रतिहत गतिवाला है, जिससे वह पृथ्वी, शिला आदि का भेदन करके बाहर से भीतर प्रविष्ट हो जाता है । इसीलिए हे प्रदेशी! तुम इस बात की श्रद्धा करो कि जीव और शरीर भिन्न है । [६८] प्रदेशी राजा ने केशीकुमारश्रमण से कहा-बुद्धि-विशेषजन्य होने से आपकी उपमा वास्तविक नहीं है । किन्तु जो कारण मैं बता रहा हूँ, उससे जीव और शरीर की भिन्नता सिद्ध नहीं होती है । हे भदन्त ! जैसे कोई एक तरुण यावत् और अपना कार्य सिद्ध करने में निपुण पुरुष क्या एक साथ पांच वाणों को निकालने में समर्थ है ? केशी कुमारश्रमणहाँ वह समर्थ है । प्रदेशी-लेकिन वही पुरुष यदि बाल यावत् मंदविज्ञान वाला होते हुए भी पांच वाणों को एक साथ निकालने में समर्थ होता तो हे भदन्त ! मैं यह श्रद्धा कर सकता था कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, जीव शरीर नहीं है । लेकिन वही बाल, मंदविज्ञान वाला पुरुष पांच वाणों को एक साथ निकालने में समर्थ नहीं है, इसलिये भदन्त ! मेरी यह धारणा कि जीव और शरीर एक हैं, जो जीव है वही शरीर है और जो शरीर है वही जीव है, सुप्रतिष्ठित, सुसंगत है । केशी कुमारश्रमण ने प्रदेशी राजा से कहा-जैसे कोई एक तरुण यावत् कार्य करने में निपुण पुरुष नवीन धनुष, नई प्रत्यंचा और नवीन बाण से क्या एक साथ पांच वाण निकालने में समर्थ है ? प्रदेशी-हाँ समर्थ है । केशी कुमारश्रमण-लेकिन वही तरुण यावत् कार्य-कुशल पुरुष जीर्ण-शीर्ण, पुराने धनुष, जीर्ण प्रत्यंचा और वैसे ही जीर्ण बाण से क्या एक साथ पाँच बाणों को छोड़ने में समर्थ हो सकता है ? भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । केशी कुमारश्रमण-क्या कारण है कि जिससे यह अर्थ समर्थ नहीं है ? भदन्त ! उस पुरुष के पास उपकरण अपर्याप्त हैं । तो इसी प्रकार हे प्रदेशी ! वह बाल यावत् मंदविज्ञान पुरुष योग्यता रूप उपकरण की अपर्याप्तता के कारण एक साथ पांच वाणों को छोड़ने में समर्थ नहीं हो पाता
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy