SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजप्रश्नीय-४४ २४१ हटकर बायां घुटना ऊंचा किया और दायां घुटना जमीन पर टिकाकर तीन बार मस्तक को भूमितल पर नमाया । नमाकर कुछ ऊँचा उठाया, तथा दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहा __ अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो, धर्मकी आदि करनेवाले, तीर्थकर, स्वयंबुद्ध, पुरुषों में उत्तम पुरुषों में सिंह के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ पुंडरीक समान, पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करनेवाले, लोक में प्रदीप के समान लोका-लोक को प्रकाशित करने वाले, अभयदाता, श्रद्धा-ज्ञान रूप नेत्र के दाता, मोक्षमार्ग के दाता, शरणदाता, बोधिदाता, धर्मदाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथी, चातुर्गतिक संसार का अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती, अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन के धारक, छद्म के नाशक, रागादि शत्रुओं को जीतने वाले तथा अन्य जीवों को भी कर्म-शत्रुओं को जीतने के लिए प्रेरित करने वाले, संसारसागर को स्वयं तिरे हुए तथा दूसरों को भी तिरने का उपदेश देनेवाले, बोध को प्राप्त तथा दूसरों को भी बोधि प्राप्त कराने वाले, स्वयं कर्ममुक्त एवं अन्यों को भी कर्ममुक्त होने का उपदेश देने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा शिव, अचल, नीरोग, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध अपुनरावृत्ति रूप सिद्धगति नामक स्थान में बिराजमान भगवन्तों को वन्दन-नमस्कार हो । भगवन्तों को वन्दन नमस्कार करने के पश्चात् सूर्याभदेव देवच्छन्दक और सिद्धायतन के मध्य देशभाग में आया । मोरपीठी उठाई और मोरपीछी से सिद्धायतन के अति मध्यदेशभाग को प्रमार्जित किया फिर दिव्य जल-धारा से सींचा, सस्स गोशीर्ष चन्दन का लेप करके हाथे लगाये, मांडने-मांडे यावत् हाथ में लेकर पुष्पपुंज बिखेरे । धूप प्रक्षेप किया और फिर सिद्धायतन के दक्षिण द्वार पर आकर मोरपीछी ली और उस मोरपीछी से द्वारशाखाओं पुतलियों एवं व्यालरूपों को प्रमार्जित किया, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया, सन्मुख धूप जलाई, पुष्प चढ़ाये, मालायें चढ़ाई, यावत् आभूषण चढ़ाये । फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई गोल-गोल लम्बी मालाओं से विभूषित किया । धूपप्रक्षेप करने के बाद जहाँ दक्षिणद्वारवर्ती मुखमण्डप था और उसमें भी जहाँ उस दक्षिण दिशा के मुखमण्डप का अतिमध्य देशभाग था, वहाँ आया और मोरपीछी ली, उस अतिमध्य देशभाग को प्रमार्जित किया, दिव्य जलधारा सींची, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया, मांडने मांडे तथा ग्रहीत पुष्प पुंजों को बिखेर कर उपचरित किया यावत् धूपक्षेप किया । - इसके बाद उस दक्षिणदिग्वर्ती मुखमण्डप के पश्चिमी द्वार पर आया, वहाँ आकर मोरपीछी ली । द्वारशाखाओं, पुतलियों एवं व्याल रूपों को पूंजा, दिव्य जलधारा से सींचा, सरस गोशीर्ष चन्दन से चर्चित किया । धूपक्षेप किया, पुष्प यावत् आभूषण चढ़ाये । लम्बीलम्बी गोल मालायें लटकाई । कचग्रहवत् विमुक्त पुष्पपुंजों से उपचरित किया, धूप जलाई । तत्पश्चात् उसी दक्षिणी मुखमण्डप की उत्तरदिशा में स्थित स्तम्भ-पंक्ति के निकट आया । वहाँ आकर लोमहस्तक से बनी प्रमार्जनी को उठाया, उससे स्तम्भों को, पुतलियों को और व्यालरूपों को प्रमार्जित किया यावत् धूप जलाने तक किया । इसके बाद दक्षिणदिशावर्ती मुखमण्डप के पूर्वी द्वार पर आया, लोमहस्तक हाथ में लिया और उससे द्वारशाखाओं, पुतलियों सर्परूपों को साफ किया, यावत् धूप जलाने तक किया । तत्पश्चात् उस दक्षिण दिशावर्ती मुखमण्डप के दक्षिण द्वार पर आया और द्वारचेटियों आदि को साफ किया, यावत् पूर्वोक्त सब कार्य किये। __तदनन्तर जहाँ दाक्षिणात्य प्रेक्षागृहमण्डप था, एवं उस का अतिमध्य देशभाग था और 616
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy