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________________ राजप्रश्नीय-४२ २३९ ने सिंह जैस गर्जना की, एक दूसरे को रंग से भर दिया, भूमि को थपथपाया और कितनेक ने सिंहनाद किया, रंग-गुलाल उड़ाई और भूमि को भी थपथपाया । मेघों की गड़गड़ाहट, बिजली की चमक जैसा दिखावा किया और किन्हीं ने वर्षा बरसाई । मेघों के गरजने चमकने और बरसने के दृश्य दिखाये । गरमी से आकुल-व्याकुल होने का, देवों ने तपने का, विशेष रूप से तपने का तो एक साथ इन तीनों का दिखावा किया । हक-हक, थक-थक, धकधक शब्द और कितने ही अपने-अपने नामों का उच्चारण करने लगे । एक साथ इन चारों को किया । टोलियां बनाई, देवोद्योत किया, रुक-रुक कर बहने वाली वाततरंगों का प्रदर्शन किया | कहकहे लगाये, दुहदुहाहट करने लगे, वस्त्रों की बरसा की और टोलियाँ बनाई, देवोद्योत किया देवोत्कलिका की, कहकहे लगाये, दुहदुहाहट की और वस्त्रवर्षा की । हाथों में उत्पल यावत् शतपत्र सहस्रपत्र कमलों को लेकर, हाथों में कलश यावत् धूपं दोनों को लेकर हर्षित सन्तुष्ट यावत् हर्षातिरेक से विकसितहृदय होते हुए इधर-इधर चारों ओर दौड़-धूप करने लगे । तत्पश्चात चार हजार सामानिक देवों यावत सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा दूसरे भी बहुत से सूर्याभ राजधानी में वास करनेवाले देवों और देवियों ने सूर्याभदेव को महान् महिमाशाली इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त किया । प्रत्येक ने दोनों हाथ जोड़कर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार कहाहे नन्द ! तुम्हारी जय हो, जय हो ! हे भद्र ! तुम्हारी जय हो, जय हो ! तुम्हारा भद्र-कल्याण हो ! हे जगदानन्दकारक ! तुम्हारी बारंबार जय हो ! तुम न जीते हुओं को जीतो और विजितों का पालन करो, जितों के भध्य में निवास करो । देवों में इन्द्र के समान, ताराओं में चन्द्र के समान, असुरों से चमरेन्द्र के समान, नागों में धरणेन्द्र के समान, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती के समान, अनेक पल्योपमों तक, अनेक सागरोपमों तक, अनेक-अनेक पल्योपमों-सागरोपमों तक, चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा सूर्याभ विमान और सूर्याभ विमानवासी अन्य बहुत से देवों और देवियों का बहुत-बहुत अतिशय रूप से आधिपत्य यावत् करते हुए, पालन करते हुए विचरण करो । इस प्रकार कहकर पुनः जय जयकार किया । अतिशय महिमाशाली इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त होने के पश्चात् सूर्याभदेव अभिषेक सभा के पूर्व-दिशावर्ती द्वार से बाहर निकला, जहां अलंकार-सभा थी वहाँ आया । अलंकारसभा की अनुप्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से अलंकार-सभा में प्रविष्ट हुआ । जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया, पूर्व की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर आरूढ हुआ । तदनन्तर उस सूर्याभदेव की सामानिक परिषद् के देवों ने उसके सामने अलंकार उपस्थित किया। इसके बाद सूर्याभदेव ने सर्वप्रथम रोमयुक्त सुकोमल काषायिक सुरभि गंध से सुवासित वस्त्र से शरीर को पोंछा । शरीर पर सरस गोशीर्ष चंदन का लेप किया, नाक को निःश्वास से भी उड़ जाये, ऐसा अति बारीक नेत्राकर्षक, सुन्दर वर्ण और स्पर्श वाले, घोड़े के थूक से भी अधिक सुकोमल, धवल जिनके पल्लों और किनारों पर सुनहरी बेलबूटे बने हैं, आकाश एवं स्फटिक मणि जैसी प्रभा वाले दिव्य देवदूष्य युगल को धारण किया । गले में हार पहना, अर्धहार पहना, एकावली पहनी, मुक्ताहार पहना, रत्नावली पहनी, एकावली पहन कर भुजाओं में अंगद, केयूर कड़ा, त्रुटित, करधनी, हाथों की दशों अंगुलियों में दस अंगूठियाँ, वक्षसूत्र, मुरवि, कंठमुरवि, प्रालंब, कानों में कुंडल पहने, मस्तक पर चूड़ामणि और मुकुट पहना । इन
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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