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________________ २२२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद सर्वात्मना रत्नों से बने हुए स्फटिक मणिवत् स्वच्छ यावत् अतीव मनोहर हैं । उन विमानों के मध्यातिमध्य भाग में-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चार दिशाओं में अनुक्रम से अशोक-अवतंसक, सप्तपर्ण-अवतंसक, चंपक-अवतंसक, आम्र-अवतंसक तथा मध्य में सौधर्म-अवतंसक, ये पांच अवतंसक हैं । ये पांचों अवतंसक भी रत्नों से निर्मित, निर्मल यावत् प्रतिरूप हैं । उस सौधर्म-अवतंसक महाविमान की पूर्व दिशा में तिरछे असंख्यातम लाख योजन प्रमाण आगे जाने पर आगत स्थान में सूर्याभदेव का सूर्याभ नामक विमान है । उसका आयाम-विष्कंभ साढ़े बारह लाख योजन और परिधि उनतालीस लाख बावन हजार आठ सौ अड़तालीस योजन है । वह सूर्याभ विमान चारों दिशाओं में सभी ओर से एक प्राकार से घिरा हुआ है । यह प्राकार तीन सौ योजन ऊँचा है, मूल में इस प्राकार का विष्कम्भ एक सौ योजन, मध्य में पचास योजन और ऊपर पच्चीस योजन है । इस तरह यह प्राकार मूल में चौड़ा, मध्य में संकड़ा और सबसे ऊपर अल्प-पतला होने से गोपुच्छ के आकार जैसा है । यह प्राकार सर्वात्मना रत्नों से बना होने से रत्नमय है, स्फटिकमणि के समान निर्मल है यावत् प्रतिरूपअतिशय मनोहर है । वह प्राकार अनेक प्रकार के कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र और श्वेत इन पाँच वर्णों वाले कपिशीर्षकों से शोभित है । ये प्रत्येक कपिशीर्षक एक-एक योजन लम्बे, आधे योजन चौड़े और कुछ कम एक योजन ऊंचे हैं तथा ये सब रत्नों से बने हुए, निर्मल यावत् बहुत रमणीय हैं । सूर्याभदेव के उस विमान की एक-एक बाजू में एक-एक हजार द्वार कहे गये हैं । ये प्रत्येक द्वार पाँ-पाँच सौ योजन ऊँचे हैं, अढाई सौ योजन चौड़े हैं और इतना ही इनका प्रवेशन है । ये सभी द्वार श्वेत वर्ण के हैं । उत्तम स्वर्णमयी स्तूपिकाओं सुशोभित हैं । उन पर ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मकर विहग, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ-अष्टापद चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्राम चित्रित हैं । स्तम्भों पर बनी हुई वज्र रत्नों की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखाई पड़ते हैं । समश्रेणी में स्थित विद्याधरों के युगल यन्त्र द्वारा चलते हुए-से दीख पड़ते हैं । वे द्वार हजारों किरणों से व्याप्त और हजारों रूपकों से युक्त होने से दीप्यमान और अतीव देदीप्यमान हैं । देखते ही दर्शकों के नयन उनमें चिपक जाते हैं । उनका स्पर्श सुखप्रद है । रूप शोभासम्पन्न है । उन द्वारों के नेम वज्ररत्नों से, प्रतिष्ठान रिष्ट रत्नों से-स्तम्भवैडूर्य मणियों से तथा तलभाग स्वर्णजड़ित पंचरंगे मणि रत्नों से बने हुए हैं । इनकी देहलियाँ हंसगर्भ रत्नों की, इन्द्रकीलियाँ गोमेदरत्नों की, द्वारशाखायें लोहिताक्ष रत्नों की, उत्तरंग ज्योतिरस रत्नों के. दो पाटियों को जोड़ने के लिये ठोकी गई कीलियाँ लोहिताक्षरत्नों की हैं और उनकी सांधे वज्ररत्नों से भरी हुई हैं | समुद्गक विविध मणियों के हैं । अर्गलायें अर्गलापाशक वज्ररत्नों के हैं । आवर्तन पीठिकायें चाँदी की हैं । उत्तरपार्श्वक अंक रत्नों के हैं । इनमें लगे किवाड़ इतने सटे हुए सघन हैं कि बन्द करने पर थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं रहता है । प्रत्येक द्वार की दोनों बाजुओं की भीतों में एक सौ अड़सठ भित्तिगुलिकायें हैं और उतनी ही गोमानसिकायें हैंप्रत्येक द्वार पर अनेक प्रकार के मणि रत्नमयी व्यालरूपों पुतलियाँ बनी हुई हैं । इनके माढ वज्ररत्नों के और माड़ के शिखर चाँदी के हैं और द्वारों के ऊपरी भाग स्वर्ण के हैं । द्वारों के जालीदार झरोखे भाँति-भाँति के मणि-रत्नों से बने हुए हैं । मणियों के बांसों का छप्पर है और बांसों को बाँधने की खपच्चियाँ लोहिताक्ष रत्नों की हैं । रजतमयी भूमि है । उनकी पाखें और
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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