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राजप्रश्नीय-२१
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विराधक ? चरम शरीरी हूँ अथवा अचरम शरीरी ? 'सूर्याभ !' इस प्रकार से सूर्याभदेव को सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने सूर्याभदेव को उत्तर दिया-हे सूर्याभ ! तुम भवसिद्धिक हो, अभवसिद्धिक नहीं हो, यावत् चरम शरीरी हो, अचरम शरीरी नहीं हो ।
[२२] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर उस सूर्याभदेव ने हर्षित सन्तुष्ट चित्त से आनन्दित और परम प्रसन्न होते हुए श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार किया और निवेदन किया-हे भदन्त ! आप सब जानते हैं और सब देखते हैं । सर्व काल को आप जानते और देखते हैं; सर्व भावों को आप जानते और देखते हैं । अतएव हे देवानुप्रिय ! पहले अथवा पश्चात् लब्ध, प्राप्त एवं अधिगत इस प्रकार की मेरी दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवधुति तथा दिव्य देवप्रभाव को भी जानते और देखते हैं । इसलिये आप देवानप्रिय की भक्तिवश होकर में चाहता हूँ कि गौतम आदि निर्ग्रन्थों के समक्ष इस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवधुति, दिव्यदेवानुभाव तथा बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि को प्रदर्शित करूँ ।
[२३] तब सूर्याभदेव के इस प्रकार निवेदन करने पर श्रमण भगवान महावीर ने सूर्याभदेव के इस कथन का आदर नहीं किया, उसकी अनुमोदना नहीं की, किन्तु मौन रहे । तत्पश्चात् सूर्याभदेव ने दूसरी और तीसरी बार भी पुनः इसी प्रकार से श्रमण भगवान् महावीर से निवेदन किया- हे भगवन् ! आप सब जानते हैं आदि, यावत् नाट्यविविध प्रदर्शित करना चाहता हूँ । इस प्रकार कहकर उसने दाहिनी ओर से प्रारम्भ कर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की । वन्दन-नमस्कार किया और उत्तर पूर्व दिशा में गया । वहाँ जाकर वैक्रियसमुद्घात करके संख्यात योजन लम्बा दण्ड निकाला । यथाबादर पुद्गलों को दूर करके यथासूक्ष्म पुद्गलों का संचय किया । इसके बाद पुनः दुबारा वैक्रिय समुद्घात करके यावत् बहुसमरमणीय भूमि भाग की रचना की । जो पूर्ववर्णित आलिंग पुष्कर आदि के समान सर्वप्रकार से समतल यावत् रूप रस गंध और स्पर्श वाले मणियों से सुशोभित था । उस अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग के मध्यातिमध्य भाग में प्रेक्षागृहमंडप की रचना की । वह अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर संनिविष्ट था इत्यादि वर्णन पूर्ववत् । उस प्रेक्षागृह मंडप के अन्तर अतीव समतल, रमणीय भूमिभाग, चन्देवा, रंगमंच और मणिपीठिका की विकुर्वणा की और उस मणिपीठिका के ऊपर फिर उसने पादपीठ, छत्र आदि से युक्त सिंहासन की रचना यावत् उसका ऊपरी भाग मुक्तादामों से शोभित हो रहा था ।
तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव ने श्रमण भगवान् महावीर की ओर देखकर प्रणाम किया और 'हे भगवन् ! मुझे आज्ञा दीजिये' कहकर तीर्थंकर की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर सुखपूर्वक बैठ गया । इसके पश्चात् नाट्यविधि प्रारम्भ करने के लिये सबसे पहले उस सूर्याभदेव ने निपुण शिल्पियों द्वारा बनाये गये अनेक प्रकार की विमल मणियों, स्वर्ण और रत्नों से निर्मित भाग्यशालियों के योग्य, देदीप्यमान, कटक त्रुटित आदि श्रेष्ठ आभूषणों से विभूषित उज्ज्वल पुष्ट दीर्घ दाहिनी भुजा को फैलाया-उस दाहिनी भुजा से एक सौ आठ देवकुमार निकले । वे समान शरीर-आकार, समान रंग-रूप, समान वय, समान लावण्य, युवोचित गुणों वाले, एक जैसे आभरणों, वस्त्रों और नाट्योपकरणों से सुसज्जित, कन्धों के दोनों और लटकते पल्लोवाले उत्तरीय वस्त्र धारण किये हुए, शरीर पर रंग-बिरंगे कंचुक वस्त्रों को पहने हुए, हवा का झोंका लगने पर विनिर्गत फेन जैसी प्रतीत होने वाली झालर युक्त चित्र-विचित्र देदीप्यमान, लटकते अधोवस्त्रों को धारण किये हुए, एकावली आदि आभूषणों से शोभायमान