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आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
जलवर्षा करने के अनन्तर उस स्थान पर सर्वत्र एक हाथ उत्सेध प्रमाण चमकीले जलज और स्थलज पंचरंगे सुगंधित पुष्पों की प्रचुर परिमाण में इस प्रकार से बरसा करो कि उनके वृन्त नीचे की ओर और पंखुडियाँ चित्त रहें । पुष्पवर्षा करने के बाद उस स्थान पर अपनी सुगंध से मन को आकृष्ट करने वाले काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुष्क तुरुष्क और धूप को जलाओ कि जिसकी सुगंध से सारा वातावरण मधमधा जाये, श्रेष्ठ सुगंध-समूह के कारण वह स्थान गंधवट्टिका समान बन जाये, दिव्य सुखरों के अभिगमन योग्य हो जाये, ऐसा तुम स्वयं करो और दूसरों से करवाओ । यह करके और करवा कर शीघ्र मेरी आज्ञा वापस मुझे लौटाओ।
[4] तत्पश्चात् वे आभियोगिक देव सूर्याभदेव की इस आज्ञा को सुन कर हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए, यावत् हृदय विकसित हो गया । उन्होंने दोनों हाथों को जोड़ मुकलित दस नखों के द्वारा किये गये सिरसावर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके विनयपूर्वक आज्ञा स्वीकार की । 'हे देव ! ऐसा ही करेंगे' इस प्रकार से सविनय आज्ञा स्वीकार करके ईशान कोण में गये । वैक्रिय समुद्घात किया । वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का रत्नमय दंड बनाया । कर्केतन रत्न, वज्र-रत्न, वैडूर्यरत्न, लोहिताक्ष रत्न, मसारगल्ल रत्न, हंसगर्भ रत्न, पुलक रत्न, सौगन्धिक रत्न, ज्योति रत्न, अंजनरत्न, अंजनपुलक रत्न, रजत रत्न, जातरूप रत्न, अंक रत्न, स्फटिक रत्न और रिष्ट रत्न । इन रत्नों के यथा बादर पुद्गलों को अलग किया और फिर यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण किया, ग्रहण करके पुनः दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात करके उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा की ।
उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा करके वे उत्कृष्ट त्वरा वाली, चपल, चंड, वेगशील, आँधी जैसी तेज दिव्य गति से तिरछे-तिरछे स्थित असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करते हुए जहाँ जम्बूद्वीपवर्ती भारतवर्ष की आमलकल्पा नगरी थी, आम्रशालवन चैत्य था और उसमें भी जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आये । वहाँ आकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, उनको वंदन-नमस्कार किया और इस प्रकार कहा । हे भदन्त । हम सूर्याभदेव के अभियोगिक देव आप देवानुप्रिय को वंदन करते हैं, नमस्कार करते हैं, आप का सत्कार-सम्मान करते हैं एवं कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप और चैत्यरूप आप देवानुप्रिय की पर्युपासना करते हैं ।
[१] 'हे देवो !' इस प्रकार से सूर्याभदेव के आभियोगिक देवों को सम्बोधित कर श्रमण भगवान् महावीर ने उन देवों से कहा-हे देवो ! यह पुरातन है, यह देवों का जीतकल्प है, यह देवों के लिये कृत्य है । करणीय है, यह आचीर्ण है, यह अनुज्ञात है और वन्दननमस्कार करके अपने-अपने नाम-गोत्र कहते हैं, यह पुरातन है यावत् हे देवो! यह अभ्यनुज्ञात
[१०] तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के इस कथन को सुनकर उन आभियोगिक देवों ने हर्षित यावत् विकसितहृदय होकर भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । वे उत्तर-पूर्व दिग्भाग में गये । वहाँ जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्घात किया और संख्यात योजन का दंड बनाया जो कर्केतन यावत् रिष्टरत्नमय था और उन रत्नों के यथाबादर पुद्गलों को अलग किया । दुबारा वैक्रिय समुद्घात करके, जैसे-कोई तरुण, बलवान, युगवान्, युवा नीरोग, स्थिर पंजे वाला, पूर्णरूप से दृढ पुष्ट हाथ पैर पृष्ठान्तर वाला, अतिशय निचित परिपुष्ट मांसल गोल कंधोंवाला, चर्मेष्टक, मुद्गर और मुक्कों की मार से सघन, पुष्ट सुगठित शरीर वाला, आत्मशक्ति सम्पन्न, युगपत् उत्पन्न तालवृक्षयुगल के समान सीधी लम्बी और पुष्ट भुजाओं