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औपपातिक- ३३
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करना, भगवान् की दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना तथा मन को एकाग्र करना । फिर उन्होंने तीन बार भगवान् महावीर को आदक्षिण- प्रदक्षिणा दी । वैसा कर वन्दन - नमस्कार किया । वे अपने पति महाराज कूणिक को आगे कर अपने परिजनों सहित भगवान् के सन्मुख विनयपूर्वक हाथ जोड़े पर्युपासना करने लगीं ।
[३४] तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने भंभसारपुत्र राजा कूणिक, सुभद्रा आदि रानियों तथा महती परिषद् को धर्मोपदेश किया । भगवान् महावीर की धर्मदेशना सुनने को उपस्थित परिषद् में, अतिशय ज्ञानी साधु, मुनि, यति, देवगण तथा सैकड़ों सैकड़ों श्रोताओं के समूह उपस्थित थे । ओघबली, अतिबली, महाबली, अपरिमित बल, तेज महत्ता तथा कांतियुक्त, शरत् काल के नूतन मेघ के गर्जन, क्रौंच पक्षी के निर्घोष तथा नगारे की ध्वनि समान मधुर गंभीर स्वरयुक्त भगवान् महावीर ने हृदय में विस्तृत होती हुई, कंठ में अवस्थित होती हुई तथा मूर्धा में परिव्याप्त होती हुई सुविभक्त अक्षरों को लिए हुए, अस्पष्ट उच्चारणवर्जित या हकलाहट से रहित, सुव्यक्त अक्षर वर्णों की व्यवस्थित श्रृंखला लिए हुए, पूर्णता तथा स्वरमाधुरी युक्त, श्रोताओं की सभी भाषाओं में परिणत होने वाली, एक योजन तक पहुँचनेवाले स्वर में, अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का परिकथन किया । उपस्थित सभी आर्य-अनार्य जनों को अग्लान भाव से धर्म का आख्यान किया । भगवान् द्वारा उद्गीर्ण अर्द्ध मागधी भाषा उन सभी आर्यों और अनार्यों की भाषाओं में परिणत हो गई ।
भगवान् ने जो धर्मदेशना दी, वह इस प्रकार है-लोक का अस्तित्व है, अलोक का अस्तित्व है । इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, अर्हत्, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यंचयोनि, तिर्यचयोनिक जीव, माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्धि, सिद्ध, परिनिर्वाण, परिनिर्वृत्त, इनका अस्तित्व है । प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य है । प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण, मैथुनविरमण, परिग्रहविरमण, क्रोध से, यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक होना और त्यागना यह सब है - सभी अस्तिभाव हैं । सभी नास्तिभाव हैं । सुचीर्ण, रूप में संपादित दान, शील तप आदि कर्म उत्तम फल देनेवाले हैं तथा दुश्चीर्ण दुःखमय फल देनेवाले हैं । जीव पुण्य तथा पाप का स्पर्श I करता है, बन्ध करता है । जीव उत्पन्न होते हैं-शुभ कर्म अशुभ कर्म फल युक्त हैं, निष्फल नहीं होते ।
प्रकारान्तर से भगवान् धर्म का आख्यान करते हैं - यह निर्ग्रन्थप्रवचन, जिनशासन अथवा प्राणी की अन्तर्वर्ती ग्रन्थियों को छुड़ानेवाला आत्मानुशासनमय उपदेश सत्य है, अनुत्तर है, केवल है, संशुद्ध है, प्रतिपूर्ण हैं, नैयायिक है - प्रमाण से अबाधित है तथा शल्य-कर्तन है, यह सिद्धि का मार्ग है, मुक्ति हेतु है, निर्वाण पथ है, निर्याणमार्ग है, अवितथ, अविसन्धि का मार्ग है । इसमें स्थित जीव सिद्धि प्राप्त करते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त हो जाते हैं, परिनिर्वृत होते हैं तथा सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं । एकार्चा, ऐसे भदन्त हैं । वे देवलोक महर्द्धिक ( अत्यन्त द्युति, बल तथा यशोमय), अत्यन्त सुखमय दूरंगतिक हैं । वहाँ देवरूप में उत्पन्न वे जीव अत्यन्त ऋद्धिसम्पन्न तथा चिरस्थितिक हैं । उनके वक्षःस्थल हारों से सुशोभित होते हैं । वे कल्पोपग देवलोक में देव शय्या से युवा रूप में उत्पन्न होते हैं । वे वर्तमान में उत्तम देवगति के धारक तथा भविष्य में भद्र अवस्था को प्राप्त करनेवाले होते हैं । असाधारण रूपवान् होते हैं ।
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