________________
१४६
आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
समय में काल करके कहाँ जायगा ? और कहाँ उत्पन्न होगा ? हे गौतम ! उम्बरदत्त बालक ७२ वर्ष का परम आयुष्य भोगकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा नरक में नारक रूप से उत्पन्न होगा । वह पूर्ववत् संसार भ्रमण करता हुआ पृथिवी आदि सभी कायों में लाखों बार उत्पन्न होगा । वहाँ से निकल कर हस्तिनापुर में कुर्कुट- के रूप में उत्पन्न होगा । वहां जन्म लेने के साथ ही गोष्ठिकों द्वारा वध को प्राप्त होगा । पुनः हस्तिनापुर में ही एक श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा । वहां सम्यक्त्व प्राप्त करेगा । वहां से सौधर्म कल्प में जन्म लेगा । वहां च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा । वहाँ अनगार धर्म को प्राप्त कर यथाविधि संयम की आराधना कर, कर्मों का क्षय करके सिद्धि को प्राप्त होगा-निक्षेप पूर्ववत्। अध्ययन-७ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
(अध्ययन-८-'शौर्यदत्त' ) [३२] अष्टम अध्ययन का उत्क्षेप पूर्ववत् । हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में शौरिकपुर नाम का नगर था । वहाँ 'शौरिकावतंसक' नाम का उद्यान था । शौरिक यक्ष था। शौरिकदत्त राजा था । उस शौरिकपुर नगर के बाहर ईशान कोण में एक मच्छीमारों का पाटक था । वहाँ समुद्रदत्तनामक मच्छीमार था । वह महा-अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था । उसकी समुद्रदत्ता नाम की अन्यून व निर्दोष पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीरवाली भार्या थी । उस समुद्रदत्त का पुत्र और समुद्रदत्ता भार्या का आत्मज शौरिकदत्त नामक सर्वाङ्गसम्पन्न सुन्दर बालक था ।
उस काल व उस समय में भगवान महावीर पधारे । यावत् परिषद् व राजा धर्मकथा सुनकर वापिस चले गये । उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतमस्वामी यावत् षष्ठभक्त के पारणे के अवसर पर शौरिकपुर नगर में उच्च, नीच तथा मध्यम में भ्रमण करते हुए यथेष्ट आहार लेकर शौरिकपुर नगर से बाहर निकलते हैं । उस मच्छीमार मुहल्ले के पास से जाते हुए उन्होंने विशाल जनसमुदाय के बीच एक सूखे, बुभुक्षित, मांसरहित व अतिकृश होने के कारण जिसके चमडे हड्डियों से चिपटे हुए है, उठते, बैठते वक्त जिसकी हड्डियां कड़कड़ कर रही हैं, जो नीला वस्त्र पहने हुए है एवं गले में मत्स्य-कण्टक लगा होने के कारण कष्टात्मक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण आक्रन्दन कर रहा है. ऐसे परुष को देखा। वह खून के कुल्लों, पीव के कुल्लों और कीड़ों के कुल्लों का बारंबार वमन कर रहा था । उसे देख कर गौतमस्वामी के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ, अहो ! यह पुरुष पूर्वकृत यावत् अशुभकर्मों के फलस्वरूप नरकतुल्य वेदना का अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है ! इस तरह विचार कर श्रमण भगवान् महावीर के पास पहुंचे यावत् भगवान् से उसके पूर्वभव की पृच्छा की । यावत् भगवन्ने कहा
__ हे गौतम ! उस काल एवं उस समय में इसी जम्बूद्वीप अन्तर्गत् भारतवर्ष में नन्दिपुर नगर था । वहाँ मित्र राजा था । उस मित्र राजा के श्रीयक नाम का रसोइया था । वह महाअधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था । उसके पैसे और भोजनादि रूप से वेतन ग्रहण करनेवाले अनेक मच्छीमार, वागुरिक, शाकुनिक, नौकर पुरुष थे; जो श्लक्ष्णमत्स्यों यावत् पताकातिपताकों तथा अजों यावत् महिषों एवं तित्तिरों यावत् मयूरों का वध करके श्रीद रसोइये को देते थे । अन्य बहुत से तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षी उसके यहाँ पिंजरों में बन्द किये हुए रहते थे।